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________________ ३६३ ३६२ प्रवचनसार अनुशीलन अनिष्ट मानता है। मोह-राग-द्वेष करके स्वयं के शुद्ध स्वभाव को भूलकर पर के साथ एकत्व परिणाम करता है, वही भावबन्ध है।' ___ एक में बंधन नहीं हो सकता । एक तरफ चिदानन्द ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध स्वरूप जीव और दूसरी तरफ अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों में मोह-रागद्वेष वाली पर्यायबुद्धि - दोनों से भावबन्ध है। निरुपाधि तत्त्व का उपाधिवाली पर्याय के साथ बंधन होता है। शुद्धस्वरूप का अशुद्ध पर्याय के साथ बंधन है। निराकुल स्वभाव का आकुलतारूप राग-द्वेष के साथ बंधन है; किन्तु जड़कर्म के साथ अथवा पर-पदार्थों के साथ बंधन नहीं। ऐसा प्रथम निश्चित करना चाहिए। जीव तो शुद्ध अनाकुल शांतरस रूप है, उसका अशांतरस-रागद्वेष-आकुलता के साथ बंधन है। त्रिकाली आत्मद्रव्य शुद्ध, त्रिकाली ज्ञान-दर्शन शुद्ध और राग-द्वेष आदि भावबन्ध अशुद्ध - ये तीन स्वज्ञेय कहे हैं। त्रिकाली परमाणु शुद्ध, त्रिकाली स्पर्शादि गुण शुद्ध और चिकनेरूखेपन के कारण होनेवाली अवस्था - ये तीन परज्ञेय हैं।" जीवद्रव्य की विकारी पर्याय का तथा पुद्गलपरमाणु की कर्मरूप अवस्था का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। जीव ने राग किया, इसलिए कर्म बंधा और कर्म का उदय आया, इसलिए रागद्वेष हुए - इसप्रकार का कर्ता-कर्म संबंध नहीं है और वह उभयबन्ध नहीं है। जब जीव राग करता है, तब उसका निमित्त पाकर धर्म, अधर्म, आकाश इत्यादि द्रव्यों की कोई अवस्था फेरफाररूप नहीं होती; किन्तु पुद्गल परमाणु कर्मरूप जरूर परिणमते हैं । तीव्र राग करता है; तब तीव्र स्थिति अनुभाग सहित कर्म बंधता है और मंद राग करता है तब मंद स्थिति अनुभाग सहित कर्म बंधता है। वह कर्म राग के कारण नहीं गाथा-१७७-१७८ बंधता; किन्तु कर्मपरमाणु स्वयं के कारण बंधते हैं। राग-द्वेष के प्रमाण में जीव के साथ एकक्षेत्र अवगाह कर्म रहते हैं। दूसरे धर्मादिक द्रव्यों में ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं; इसलिए विशिष्टतर परस्पर अवगाह कहा है। जीव के साथ कर्म स्कंध का परस्पर अवगाहरूप रहना ही उभयबंध कहलाता है। भावबन्ध, द्रव्यबन्ध और उभयबन्ध तीनों पर्यायें हैं - ज्ञेय हैं; इनका स्वरूप जानकर निज आत्मा इन तीनों बन्धों से रहित है' - ऐसा श्रद्धाज्ञान करना ही धर्म है। द्रव्यबन्ध स्वतंत्र है, उसमें भावबन्ध निमित्तमात्र है। जब आत्मा के प्रदेशों में कंपन होता है, तब कर्मपुद्गलों का समूह स्वयं की योग्यता के कारण आत्मा के क्षेत्र में रहता है; किन्तु जब आत्मा के प्रदेशों का कंपन होता है, तब कर्मों को आना पड़े - ऐसा नहीं है; उसीप्रकार कर्म आते हैं, इसलिए आत्मा के प्रदेशों को कंपनरूप होना पड़े - ऐसा भी नहीं है; दोनों स्वतंत्र हैं। कर्म स्वयं के कारण आते हैं और जाते हैं, उसमें कंपन निमित्तमात्र है। कंपन योगगुण की विकारी पर्याय है । उस योग के निमित्त से जड़कर्म में प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है। ___ कषाय के निमित्त से कर्म में स्थितिबंध तथा अनुभागबंध पड़ता है। जीव स्वयं के ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को भूलकर पर-पदार्थ में मोह करता है, तब कर्म आकर बंधते हैं। स्थिति और रस का बंध (अनुभागबंध) कर्म में स्वयं की योग्यता के कारण पड़ता है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि पुराने पौद्गलिक द्रव्यकर्मों के साथ नये पौद्गलिक द्रव्यकर्मों का बंधन नियमानुसार होता है। जिनागम में स्कंधरूप बंध के कुछ नियम हैं। स्निग्ध और रूक्ष में बंध होता है, दो गुण अधिक हों तो बंध होता है, जघन्यगुणों में बंध नहीं होता आदि नियमों के अनुसार होनेवाला बंध स्पर्श रहित जीव और पुद्गल में कैसे १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३१८ २. वही, पृष्ठ-३२१ ३. वही, पृष्ठ-३२३ ४. वही, पृष्ठ-३२३ १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३१४ ३. वही, पृष्ठ-३१५-३१६ ५. वही, पृष्ठ-३१७ २. वही, पृष्ठ-३१४ ४. वही, पृष्ठ-३१७ ६. वही, पृष्ठ-३१८
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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