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प्रवचनसार अनुशीलन वे पदार्थ अथवा उन पदार्थों का ज्ञान मलिनता का कारण नहीं; केवलज्ञानी के ज्ञान में तीन लोक के पदार्थ जाने जाते हैं; फिर भी उनको राग नहीं होता। अज्ञानी जीव उन पदार्थों में मोह करता है, वही संसार का कारण है।
भावबन्ध के कारण द्रव्यबन्ध नहीं होता, भावबन्ध तो निमित्त मात्र है।
अहो ! वस्तुस्वरूप स्वतंत्र है। अजीव की क्रिया जीव कर सकता है - ऐसा जो मानता है, उसे नवतत्त्व की व्यवहार श्रद्धा की भी खबर नहीं। जो जीव बाहर के संयोगों में अटका है, वह जीव विकार तथा स्वयं के त्रिकाली स्वभाव दोनों में भेद नहीं कर सकता। पराधीन दृष्टि करना ही मोह, राग और द्वेष है तथा वही भावबन्ध है। उसका निमित्त पाकर जड़कर्म का संयोग होता है। राग-द्वेष किया, इसलिए द्रव्यबन्ध हुआ - ऐसा नहीं, वह तो अपने काल में होता है, वहाँ भावबन्ध निमित्त मात्र है।
जड़कर्म जड़कर्म के कारण और भावबन्ध भावबन्ध के कारण है। जब भावबन्ध हो, तब जड़कर्म का बंध होता ही है - ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध जानना । फिर भी वहाँ राग-द्वेष, जड़कर्म के कर्त्ता नहीं।
बाह्य चीजों के संयोग में तो अनेक बार निमित्त-नैमित्तिक बनते नहीं देखे जाते हैं; क्योंकि जीव इच्छा करता है, वहाँ वाणी निकलती भी है और नहीं भी, किसी चीज की इच्छा करे तो संयोग मिले अथवा न भी मिले अर्थात् बाहर के संयोगों का तथा जीव के भाव का निमित्तनैमित्तिक संबंध सदा नहीं बनता, कभी-कभी ही बनता है; किन्तु जहाँ राग का तथा जड़कर्म का अनिवार्य निमित्त-नैमित्तिक संबंध है ही, वहाँ भी राग जड़कर्म का कर्त्ता नहीं; तो फिर जहाँ निमित्त-नैमित्तिक संबंध सदा नहीं बनता, कभी-कभी ही बनता है, वहाँ पर पदार्थों का कर्ताभोक्ता या लानेवाला आत्मा कैसे हो सकता है?" १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३०१ २. वही, पृष्ठ-३०९ ३. वही, पृष्ठ-३११
गाथा-१७५-१७६
३५५ तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को स्फटिक मणि का उदाहरण देकर यह सिद्ध किया गया है कि जिसप्रकार अत्यन्त स्वच्छस्वभावी स्फटिक मणि काले, पीले और लाल पात्र के संयोग से स्वयं अकेला ही काला, पीला और लाल हो जाता है; उसीप्रकार यह आत्मा विभिन्न पदार्थों को ज्ञेयरूप से प्राप्तकर, जानकर, उनमें अपनापन करता है, उनसे राग-द्वेष करता है तो उन मोह-राग-द्वेष से उपरक्त होने से स्वयं अकेला ही बंधरूप हो जाता है।
यहाँ यह प्रश्न संभव है कि किसी वस्तु का बंध किसी दूसरी वस्तु से ही संभव है, अकेले एक में बंधन कैसे हो सकता है ? ___इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया है कि यहाँ आत्मा अकेला कहाँ है, साथ में ज्ञेयों के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष भी तो हैं। इसलिए यह भावबंध एक आत्मा और दूसरे मोह-राग-द्वेष के बीच होनेवाला बंध है। __ इस भावबंध में कर्मोदय उदयरूप से और वे ज्ञेयपदार्थ ज्ञेयरूप से निमित्तमात्र हैं। इन्होंने आत्मा में कुछ भी नहीं किया है; क्योंकि इनमें
और आत्मा के बीच में तो अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवाल है। कर्मों के उदयकाल में ज्ञेयों के लक्ष्य से यह आत्मा स्वयं ही मोह और रागद्वेषरूप परिणमा है। यद्यपि यह मोह-राग-द्वेषभाव आत्मा की ही विकारी पर्यायें हैं; किन्तु दुख का कारण होने से आत्मा की मर्यादा के बाहर है, इसलिए द्वितीय हैं।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि राग-द्वेष-मोह द्वितीय हैं तो फिर 'अकेला ही बंधरूप हो जाता है' - ऐसा क्यों लिखा है ?
परद्रव्य के साथ के बंध के निषेध के लिए - ऐसा लिखा गया है।
आत्मा में तो एक भावबंध ही है। नये द्रव्यकर्मों का बंध तो पुराने द्रव्यकर्मों के साथ स्निग्धता-रूक्षता के आधार पर होता है।
वस्तुस्थिति यह है कि इसी भावबंध का निमित्त पाकर नवीन