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________________ गाथा-१७५-१७६ ३५३ ३५२ प्रवचनसार अनुशीलन संसार कोई बाह्यपदार्थों में नहीं; अपितु स्वयं के अज्ञानभाव और राग-द्वेष की पर्याय में ही संसार है। १. जगत के पदार्थ हैं; इसलिए भावबन्ध होता है - ऐसा नहीं है; कारण कि वे पदार्थ भगवान के ज्ञान में ज्ञात होते हैं; फिर भी उनको भावबंध नहीं होता। जो जीव इन चीजों से लाभ-हानि मानकर भ्रांति का सेवन करता है, उसे भावबन्ध होता है। २. यदि उन वस्तुओं के साथ एकक्षेत्रावगाह संबंध छूट जायें तो भावबंध छूट जाय - ऐसा भी नहीं; क्योंकि द्रव्यलिंगी के किसी भी चीज का परिग्रह नहीं; फिर भी भावबंध नहीं छूटता; क्योंकि परपदार्थ मेरा है और मैं उसको छोड़ सकता हूँ - ऐसी मान्यता उसके है और यही भावबंध है। यह मान्यता तो छूटी नहीं; इसलिए पर-पदार्थों के छूटने से भावबंध नहीं छूटता; अपितु पर से ममत्व छूटने से भावबन्ध छूटता है। उपयोगमय आत्मा अर्थात् जानने-देखने के स्वभाववाला आत्मा जीवतत्त्व है, शरीर तथा कर्म अजीव तत्त्व हैं। दया-दानादि के शुभभाव पुण्यतत्त्व हैं। हिंसा, झूठ, चोरी के अशुभभाव पापतत्त्व हैं। पुण्य-पाप दोनों आस्रव हैं और उनमें अटकना भावबन्ध है। स्वयं के आत्मा की श्रद्धा करके शुद्धि प्रगट होना संवर तत्त्व है। विशेष लीनता होने पर शुद्धि की वृद्धि होना निर्जरा तत्त्व है और परिपूर्ण शुद्धि होना मोक्ष तत्त्व है। पर्यायदृष्टिवाला जीव स्वयं ही भावबन्धरूप परिणमता है। आत्मा स्फटिकमणि जैसा निर्मल है; किन्तु स्फटिक काले, पीले और लाल रंग के संयोग में आने पर अपनी योग्यतानुसार काला, पीला और लालरंगरूप से परिणमित होता है। रंग को तो निमित्त कहा जाता है; किन्तु वह रंगीन अवस्था स्फटिक मणि का मूलस्वभाव नहीं है। उसका मूल स्वभाव तो स्वच्छरूप है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२९० २. वही, पृष्ठ-२९१ ३. वही, पृष्ठ-२९१-२९२ उसीप्रकार आत्मा ज्ञाता-दृष्टा स्वभावमय है; किन्तु जब वह स्वयं के स्वभाव को भूलकर पर के ऊपर लक्ष्य करता है तो उसमें मलिनता अर्थात् शुभाशुभ भाव उत्पन्न होते हैं। __ अनुकूल पदार्थों में राग करना, प्रतिकूल पदार्थों में द्वेष करना, पैसे कमाने आदि के अशुभभाव में सुख मानना, दया-दानादि पुण्य भाव में धर्म मानना - ये सभी मोह-मिथ्यात्व के भाव औपाधिक भाव हैं। ऐसा मलिन परिणामरूप से परिणमा आत्मा स्वयं ही बंधरूप है। यहाँ कोई कहता है कि बंध तो दो का मिलकर होता है, अकेला आत्मा बंधस्वरूप कैसे हो सकता है? उससे कहते हैं कि एक तो आत्मा और दूसरा मोह-राग-द्वेषादिभाव - ऐसा होने से मोह-राग-द्वेषादि भाव से मलिन स्वभाव वाला आत्मा स्वयं ही भाव-बन्ध है। यहाँ प्रश्न है कि आत्मा की पर्याय मोह-राग-द्वेष 'द्वितीय' कैसे है? उत्तर देते हैं कि भावबन्ध आत्मा की अरूपी विकारी पर्याय है, वह किसी जड़ में उत्पन्न नहीं होती तथा जड़ के कारण से भी नहीं होती। मलिनता आत्मा की अवस्था में होने से वह आत्मा की स्वच्छता को रोकती है, सुख उत्पन्न नहीं होने देती; इसलिए उसे (मोह-राग-द्वेष को) 'द्वितीय' चीज कहा है। यदि मलिनता और त्रिकाल स्वभाव एक होता तो मलिनता सुख को नहीं रोकती अथवा त्रिकाली स्वभाव मलिन हो जाता इसलिए त्रिकाली स्वभाव की अपेक्षा मलिनता दूसरी चीज है। बंध दो चीजों का होता है अर्थात् आत्मा और मलिनता का परिणाम दो का बन्ध हुआ है; किसी पर पदार्थों के साथ बंध नहीं हुआ। पदार्थ तथा पदार्थों का ज्ञान मलिनता का कारण नहीं। इस ज्ञानस्वभाव में सभी पदार्थ जानने योग्य हैं, उन पदार्थों को जानने का आत्मा का स्वभाव है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२९५ २. वही, पृष्ठ-२९९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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