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________________ ३२६ प्रवचनसार अनुशीलन तो सामान्य और विशेष एक हो जायें, दोनों पृथक् नहीं रहें। अनंतगुणों का समूहरूप एकाकार आत्मा मात्र ज्ञानगुण को स्पर्श नहीं करता है। यहाँ शुद्ध द्रव्य की श्रद्धा कराई है। शरीररहित, कर्मरहित, विकाररहित, गुणभेदरहित - ऐसे अभेद शुद्धद्रव्य की दृष्टि करानी है।' लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोधविशेष जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा पर्यायविशेष से आलिंगित न होनेवाला - ऐसा शुद्धद्रव्य है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है - यह उन्नीसवाँ बोल है। १८वें बोल में 'अर्थावबोध' शब्द दिया था और कहा था कि गुणभेद होने पर भी अभेद आत्मा गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है, इसप्रकार गुणभेद का निषेध कराकर अभेद आत्मा की श्रद्धा कराई थी। यहाँ ऐसा कहते हैं कि साधकदशा में सम्यग्ज्ञान की निर्मलपर्याय को अथवा केवलज्ञान के समय केवलज्ञानी की पूर्ण निर्मलपर्याय का आत्मा चुम्बन नहीं करता है, स्पर्श नहीं करता है। द्रव्य, पर्याय जितना ही नहीं है; इसप्रकार कहकर पर्याय-अंश का लक्ष छुड़ाना है और अंशी द्रव्य की श्रद्धा करानी है। आत्मा ज्ञाता-दृष्टा शुद्धस्वभावी है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करने से जो निर्मलपर्याय प्रगट होती है, उस पर्याय को भी आत्मा स्पर्श नहीं करता है, आलिंगन नहीं करता है; परन्तु आत्मा नित्य शुद्धद्रव्य है - ऐसा तेरा ज्ञेयस्वभाव है। जैसा ज्ञेयस्वभाव है; वैसा जाने तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट हो। ऐसी अपूर्व बात अनंतकाल में सुनने को मिली है। यथार्थ समझ करके सम्यक् प्रतीति करे तो धर्म हो, परन्तु जिसको यह बात सुनने को भी नहीं मिली है, उसे तो धर्म कहाँ से होगा ? शुद्धस्वभावी द्रव्य नित्य है और निर्मल पर्याय एकसमय की होने से अनित्य है। नित्य शुद्धद्रव्य अनित्य सम्यग्ज्ञान की अथवा केवलज्ञान की गाथा-१७२ पर्याय को निश्चय से स्पर्श करे तो द्रव्य नित्य नहीं रहता है अर्थात् द्रव्य के क्षणिक होने का प्रसंग आता है; परन्तु ऐसा कभी नहीं बनता है। जिसप्रकार १८वें बोल में कहा था कि अभेद आत्मा में भेद का अभाव है; अत: अभेद आत्मा गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है; उसीप्रकार यहाँ नित्य ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा त्रिकाली है, वह एकसमय की अनित्य निर्मलपर्याय का स्पर्श नहीं करता है। लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है, इसप्रकार आत्मा द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसी शुद्धपर्याय हैं', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है - यह बीसवाँ बोल है। अठारहवें बोल में - त्रिकाली द्रव्य, सामान्य, वह ज्ञानरूप गुणभेद को स्पर्श नहीं करता है। आत्मा में ज्ञानगुण का भेद नहीं है अर्थात् आत्मा सामान्य अभेदरूप है, ऐसा कहा था। उन्नीसवें बोल में - त्रिकाली द्रव्यसामान्य में ज्ञान की पर्याय नहीं है। अर्थात् सामान्य में विशेष नहीं है, सामान्य में विशेष का अभाव है; ऐसा कहा था। यहाँ बीसवें बोल में कहते हैं कि एकसमय की पर्याय में त्रिकाली द्रव्य का अभाव है। ज्ञानगुण की पर्याय त्रिकाली ज्ञानगुण के आधार से नहीं है, विशेष सामान्य के आधार से नहीं है। एकसमय की सम्यग्ज्ञान की पर्याय अथवा केवलज्ञान की पर्याय निरपेक्ष है। त्रिकाली गुण के आधार से वह प्रगट नहीं होती है; इसप्रकार निरपेक्षता बतलाई है। इसप्रकार आत्मा त्रिकाली ज्ञान से नहीं स्पर्शित ऐसी शुद्धपर्याय है; ऐसा यहाँ बतलाया है। सामान्य के आधार से विशेष मानने में आये तो विशेष निरपेक्ष सिद्ध नहीं होता है। विशेष को पराधीन माने तो पराधीनदशा होती है, वह पर्यायबुद्धि है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२६३ २. वही, पृष्ठ-२६४ ३. वही, पृष्ठ-२६५ १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२६५ २. वही, पृष्ठ-२७५
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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