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है; ऐसा स्वज्ञेय का ज्ञान-श्रद्धान करना वह धर्म का कारण है।
लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाला - लोकव्याप्तिवाला नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है - यह पन्द्रहवाँ बोल है।'
प्रत्येक आत्मा जिसप्रकार संसार में प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न रहता है; उसीप्रकार मुक्त होने के पश्चात् भी भिन्न-भिन्न रहता है। वह लोक में व्याप्त नहीं होता है, अपने असंख्य प्रदेश को छोड़कर लोक में व्याप्त होना, यह उसका स्वभाव नहीं है। आत्मा शुद्ध होने के पश्चात् अपने अंतिम शरीरप्रमाण से किंचित् न्यून अपने आकार में - निश्चय से अपने असंख्य प्रदेश में रहता है और ऊर्ध्वगमनस्वभाव के कारण व्यवहार से लोक के अग्रभाग में विराजता है।
प्रवचनसार अनुशीलन
जिसके लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है', इस अर्थ की प्राप्ति होती है - यह सोलहवाँ बोल है।
शरीर का आत्मा में अभाव है। चौदहवें बोल में कहा था कि पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार आत्मा में नहीं है। यहाँ कहते हैं कि स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक शरीर का आत्मा में अभाव है; क्योंकि वह जड़ है, अजीवतत्त्व है और आत्मा तो जीवतत्त्व है।
आत्मा भाववेद और द्रव्यवेद रहित अवेदी है, अपने ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध आनंद का भोग करनेवाला है, ऐसी स्वदृष्टि करे और पर की दृष्टि छोड़े तो सम्यग्दर्शन होता है और धर्म होता है।
आत्मा तो अपने ज्ञान, दर्शन, सुख आदि का वेदक है; परन्तु शरीर तथा विकारी भाव का वेदक नहीं है।' पुरुषादि के आकार को आत्मा
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- २५४ ३. वही, पृष्ठ- २५६
४. वही, पृष्ठ- २५७
२. वही, पृष्ठ- २५५
५. वही, पृष्ठ- २५८
गाथा - १७२
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मानना, वह जड़ को जीव मानने जैसा है और भाववेद को आत्मा मानना, वह पापतत्त्व को जीवतत्त्व मानने जैसा है। अजीव को जीव मानना तथा पाप को जीव मानना अधर्म है; परन्तु शरीर तथा भाववेद से रहित आत्मा शुद्धचिदानन्दस्वरूप है, ऐसी श्रद्धा - ज्ञान करना धर्म है, जीवनकला है; सुखी जीवन कैसे जीना, उसकी यह कुंजी है।
लिंगों का अर्थात् धर्मचिन्हों का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है'; इस अर्थ की प्राप्ति होती है - यह सत्तरहवाँ बोल है। "
लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध ( पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा गुणविशेष से आलिंगित न होनेवाला - ऐसा शुद्धद्रव्य है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति है - यह अठारहवाँ बोल है।
आत्मा वस्तु है। वह अनंतगुणों का पिण्ड है। वह मात्र ज्ञानगुणवाला नहीं है । अभेद आत्मा गुण के भेद को स्पर्श करे ऐसा नहीं है।
आत्मा में ज्ञानादि अनंत गुण हैं। ज्ञानगुण, दर्शनगुण आदि गुणभेद आत्मा में होने पर भी अनंत गुणों का एक पिंडरूप आत्मा गुणभेद का स्पर्श नहीं करता है । 'मैं ज्ञान का धारक हूँ और ज्ञान मेरा गुण है' ऐसे गुणगुणी के भेद को अभेद आत्मा स्वीकार नहीं करता है। अभेद आत्मा भेद का स्पर्श करे तो वह भेदरूप हो जाये, भेदरूप होने पर अभेद होने का प्रसंग कभी भी प्राप्त नहीं हो और अभेद माने बिना कभी भी धर्म नहीं होता है। *
आत्मा त्रिकाली गुणों का पिंड है, वह सामान्य है और दर्शन आदि गुण वे विशेष हैं। सामान्य विशेष को स्पर्श नहीं करता है, सामान्य सामान्य में है, विशेष विशेष में है। सामान्य में विशेष नहीं है और विशेष में सामान्य नहीं है। सामान्य ऐसे आत्मा विशेष ऐसे ज्ञानगुण को स्पर्श करे
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- २५९ २. वही, पृष्ठ २६१
३. वही, पृष्ठ- २६१-२६२