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________________ गाथा-१५७-१५८ २६८ प्रवचनसार अनुशीलन विशिष्ट उदय दशा में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से, अशुभ उपराग को ग्रहण करने से जो उपयोग परमभट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर अरहंत-सिद्ध और साधुजनों के अतिरिक्त अन्य उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषयकषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है।" वैसे तो आचार्य जयसेन इन गाथाओं का अर्थ अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; तथापि वे अन्त में दुःश्रुति, दुश्चित्त और दुष्टगोष्टी का स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “शुद्धात्मतत्त्व की प्रतिपादक श्रुति, जिनवाणी, आगम सुश्रुति है और उससे विपरीत दुश्रुति है अथवा मिथ्याशास्त्ररूप श्रुति दुःश्रुति है। चिन्ता रहित होकर आत्मा में लीन मन सुचित्त है और उस आत्मलीनता का विनाश करनेवाला मन दुःश्चित्त है अथवा स्व और पर के लिए इच्छित काम-भोग की चिन्तारूप परिणत रागादि अपध्यान दुश्चित्त है। परम चैतन्य परिणति को नष्ट करनेवाली संगति दुष्टगोष्टी है अथवा परम चैतन्य परिणति के विरोधी कुशील पुरुष आदि की गोष्टी (संगति) दुष्टगोष्टी है।" कविवर वृन्दावनदासजी इन दो गाथाओं का भाव दो छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मत्तगयन्द) जो जन श्री जिनदेव को जानत, प्रीति सोंवृन्द तहाँ लव लावै। सिद्धनि को निज ज्ञान तैंदेखि कै, ध्यापकहोय केध्यान में ध्यावै ।। औ अनगार गुरूनि में भक्ति, दया सब जीवनि माहिं दिढ़ावै । ताकहँ श्रीगुरुदेव बखानत, सो शुभरूपपयोग कहावै ।।२३।। जो लोग जिनेन्द्र भगवान को जानते हैं और प्रेम से उनमें लौ लगाते हैं, सिद्ध भगवान का ध्यान करते हैं और जिनकी दिगम्बर साधुओं में भक्ति होती है तथा जो सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव रखते हैं; वे शुभोपयोगी हैं - ऐसा श्रीगुरु कहते हैं। (मनहरण कवित्त) इंद्रिनि के विषै और क्रोधादि कषायनि में, जाको परिनाम अवगाढ़ागाढ़ रुखिया। मिथ्याशास्त्र सुनै सदा चित्त में कुभाव गुनै, दुष्ट संग रंग को उमंग रस चुखिया ।। जीवनि के घातवे को जतन करत नित, कुमारग चलिवे में उग्रमुख मुखिया। ऐसो उपयोग सोई अशुभ कहावत है, जाके उर बसै वह कैसे होय सुखिया ।।२४।। इन्द्रियों के विषयों में और क्रोधादिक कषायों में जिसके परिणाम गहराई से लिप्त रहते हैं; जो मिथ्या शास्त्रों को सुनते हैं और चित्त से सदा ही खोटे भाव कर चिन्तन करते हैं, दुष्टों की संगति में उमंग के साथ रहते हैं; जीवों के घात करने के यत्न में सदा लगे रहते हैं, कुमार्ग पर चलने में मुखिया बनकर उत्साहित रहते हैं। उनका इसप्रकार का उपयोग अशुभोपयोग कहलाता है। जिसके हृदय में यह अशुभोपयोग बसता है, वह सुखी कैसे हो सकता है ? इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित देवीदासजी ठीक इसीप्रकार अत्यन्त सरल भाषा में शुभोपयोग और अशुभोपयोग का स्वरूप स्पष्ट कर देते हैं; जो मूलतः पठनीय है। इन गाथाओं के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“जब जीव स्वयं के स्वभाव में स्थिर नहीं हो पाता, तब सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति और चारित्रमोहनीय प्रकृति का निमित्त पाकर क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव का उपयोग पंचपरमेष्ठी की तरफ बसनेवाला होता है।' जो भाव पंचपरमेष्ठी की श्रद्धा करने में तथा सभी जीवों के प्रति अनुकम्पा करने में प्रवर्तता है, वह भाव शुभभाव कहा जाता है। इसप्रकार ज्ञानी जीव को होनेवाला शुभ उपयोग पुण्य बंध का कारण है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१४९ २. वही, पृष्ठ-१४९ ३. वही, पृष्ठ-१५०
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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