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________________ प्रवचनसार अनुशीलन अब चारित्र की प्रधानता से उपयोग के भेद कहते हैं। उपयोग ज्ञान तथा दर्शन गुण की पर्याय है, चारित्र गुण की पर्याय नहीं; किन्तु आचरण को मुख्य करके उपयोग के भेद कहते हैं। १. शुद्धोपयोग - आत्मा ज्ञानस्वरूप है, शरीरादि जड़ हैं, पुण्यपाप आत्मा के स्वरूप नहीं हैं ऐसी प्रतीति और ज्ञान सहित शुद्धस्वभाव में होनेवाली रमणता को शुद्धोपयोग कहते हैं और वही धर्म है। २. अशुद्धोपयोग - आत्मा ज्ञानस्वरूप है - ऐसा न जानकर परपदार्थ की तरफ स्वयं के परिणाम विकारसहित होना, उसको अशुद्धोपयोग कहते हैं। वह अशुद्धोपयोग दो प्रकार का है - १. शुभोपयोग, २. अशुभोपयोग । २६६ - शुभोपयोग स्वयं के शुद्ध स्वभाव की तरफ उपयोग न करके जीव दया- दानादि मंद कषायरूप परिणाम में जुड़ता है, वह शुभोपयोग है और वह पुण्यरूपी अधर्म का कारण है। अशुभोपयोग - स्वयं के शुद्धस्वभाव की तरफ उपयोग न करके तीव्र कषायरूप परिणाम में जुड़ना अशुभोपयोग है और वह पापरूपी अधर्म का कारण है।" उक्त गाथा और उसकी टीकाओं में अत्यन्त संक्षेप में यह कहा गया है कि ज्ञान दर्शन को उपयोग कहते हैं और वह उपयोग आत्मा का स्वरूप है। यदि चारित्र की अपेक्षा बात करें तो वह उपयोग शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का है। अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार का होता है- शुभोपयोग और अशुभोपयोग । शुभोपयोग से पुण्यबंध होता है और अशुभोपयोग से पाप बंधूता है - इसप्रकार अशुद्धोपयोग बंध का कारण है और शुद्धोपयोग १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१४३. बंध के अभाव का कारण हैं, मोक्ष का कारण है । प्रवचनसार गाथा १५७ - १५८ विगत गाथाओं में उपयोग के भेद बताकर उनके स्वरूप को स्पष्ट कर अब इन गाथाओं में शुभ और अशुभ उपयोग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स । । १५७ ।। विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो । । १५८ ।। ( हरिगीत ) श्रद्धान सिध- अणगार का अर जानना जिनदेव को । जीवकरुणा पालना बस यही है उपयोग शुभ ।। १५७ ।। अशुभ है उपयोग वह जो रहे नित उन्मार्ग में । श्रवण-चिंतन-संगति विपरीत विषय कषाय में ।। १५८ ।। जो जिनेन्द्रों को जानता है, सिद्धों और अनगारों की श्रद्धा करता है तथा जीवों के प्रति दयाभाव रखता है; उसका वह उपयोग शुभ कहलाता है । जिसका उपयोग विषय-कषाय में मग्न है; कुश्रुत, कुविचार और कुसंगति में लगा है तथा उग्र है, उन्मार्ग में लगा हुआ है; उसका वह उपयोग अशुभोपयोग है। उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"विशेषप्रकार की क्षयोपशमदशा में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से, शुभ उपराग को ग्रहण किया होने से जो उपयोग परमभट्टारक महादेवाधिदेव अरहंत परमेश्वर, सिद्ध भगवान और साधुजनों की श्रद्धा करने में तथा समस्त जीव समूह की अनुकंपा का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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