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________________ गाथा-१३३-३४ प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार गुणविशेष से द्रव्यविशेष जानना चाहिए।' कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथाओं के भाव को अत्यन्त सरल शब्दों में सहजभाव से इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण कवित्त) एकै काल सरव दरवनि को थान दान, कारन विशेष गुन राजत अकास में। धरम दरव को गमन हेत कारन है, जीव पुद्गल के विचरन विलास में ।। अधरम दर्व को विशेष गुन थिति होत, दोनों क्रियावंतनि के थित परकास में। काल को सुभावगुन वरतना हेतु कह्यौ, आतमा को गुन उपयोग प्रतिभास में ।।४५।। आकाशद्रव्य में एककाल में समस्त द्रव्यों को स्थान देने का गुण शोभित हो रहा है, धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों के विचारण में निमित्तकारण है, गमन का हेतु है और अधर्मद्रव्य का स्थितिहेतुत्व नामक विशेष गुण जीव और पुद्गल - दोनों क्रियावान द्रव्यों के गमनपूर्वक ठहरने में निमित्त है। कालद्रव्य का स्वभाव सभी द्रव्यों के परिवर्तन में निमित्त है और आत्मा का स्वभाव सबको जानने-देखने का है। (दोहा) ऐसे मूरति रहित के गुन संक्षेप भनंत। वृन्दावन तामें सदा हैं गुन और अनंत ।।४६।। जो गुन जासुसुभाव है सो गुन ताही माहिं । औरनि के गुन और में कबहूँ व्यापैं नाहिं ।।४७।। नभ को तो उपकार है पाँचों पर सुन मीत । धर्माधर्मनि को लसै जिय पुद्गल सों रीत ।।४८।। काल सबनि पैंकरतु है निज गुन तैं उपकार । नव जीरन परिणमन को या होत विचार ।।४९।। जीव लखैजुगपत सकल केवलदृष्टि पसार। याही तैं सब वस्तु को होत ज्ञान अविकार ।।५०।। इसप्रकार अमूर्तिक द्रव्यों के गुण संक्षेप में बताये। वृन्दावन कवि कहते हैं कि उन द्रव्यों में मात्र वे ही गुण नहीं हैं। वे गुण तो पहिचान के चिह्न विशेष हैं। उनके साथ और भी अनंत गुण उनमें हैं। ___जो गुण जिस द्रव्य का स्वभाव है, वह गुण उस द्रव्य में ही पाया जाता है। एक द्रव्य के गुण दूसरे द्रव्यों में कभी भी व्याप्त नहीं होते। हे मित्र ! तुम सुनो आकाश का उपकार शेष पाँच द्रव्यों पर है और धर्म-अधर्म द्रव्यों का उपकार जीव और पुद्गलों पर है। कालद्रव्य सभी द्रव्यों पर उपकार करता है; वह जीर्ण से नवीनरूप परिणमन में निमित्त है। यह जीव द्रव्य सभी द्रव्यों को केवलदर्शन दृष्टि से देखता है और इसी जीवद्रव्य द्वारा सभी द्रव्यों का अविकारी ज्ञान होता है। पण्डित देवीदासजी ने इन गाथाओं के भाव को इसीप्रकार प्रस्तुत किया है। यह अत्यन्त सरल प्रकरण है; अत: विशेष पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। जिनकी रुचि है, वे ग्रन्थ से मूलत: पढ़ें। प्रश्न - यहाँ एक द्रव्य दूसरे द्रव्य पर उपकार करता है - यह बात कही गई है; पर हमने तो सुना है कि महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्यों के उपकार की चर्चा करते हुए कहा है कि जीवन-मरण और सुख-दुख - ये पुद्गल द्रव्य के जीवों पर उपकार हैं। अब यहाँ प्रश्न यह है कि क्या जीवन के साथ मरण भी उपकार है और सुख के साथ दुख भी उपकार है ? उत्तर - अरे भाई ! यहाँ उपकार का अर्थ भलाई नहीं है, मात्र निमित्त है। तात्पर्य यह है कि पुद्गल जीवों के जीवन-मरण और सुख-दुख में निमित्त है । जीवों के जीवन-मरण और सुख-दुखरूप कार्य का उपादानकारण अर्थात् कारक आत्मा है और निमित्तकारण अर्थात् उपकारक कर्मोदयरूप पदगल हैं। प्रश्न - क्या उपकारक कारक नहीं है ?
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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