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________________ प्रवचनसार गाथा १३३-३४ विगत गाथा में मूर्तद्रव्य पुद्गल के गुणों की चर्चा करने के उपरान्त अब शेष अमूर्त द्रव्यों के गुणों की चर्चा करते हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - आगासस्सवगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं । धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ।।१३३।। कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेवादी गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ।।१३४।। (हरिगीत) आकाश का अवगाह धर्माधर्म के गमनागमन । स्थानकारणता कहे ये सभी जिनवरदेव ने ।।१३३।। उपयोग आतमराम का अर वर्तना गण काल का। है अमूर्त द्रव्यों के गुणों का कथन यह संक्षेप में ।।१३४।। आकाश का अवगाह, धर्मद्रव्य का गमनहेतुत्व और अधर्मद्रव्य का गुण स्थानकारणता है। कालद्रव्य का वर्तना और आत्मा का गुण उपयोग कहा गया है। इसप्रकार अमूर्त द्रव्यों के गुण संक्षेप में जानना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "एकसाथ सभी पदार्थों के साधारण अवगाह का हेतुपना आकाशद्रव्य का विशेष गुण है। एक ही साथ सभी गमनपरिणामी जीवपुद्गलों के गमन का हेतुपना धर्मद्रव्य का विशेष गुण है। एक ही साथ सभी स्थानपरिणामी जीव-पुद्गलों के स्थिर होने का हेतुत्व अधर्मद्रव्य का विशेष गुण है। काल के अतिरिक्त शेष सभी द्रव्यों के प्रतिसमय में परिणमन का हेतुपना कालद्रव्य का विशेष गुण है और चैतन्यपरिणाम जीव का विशेष गुण है। गाथा-१३३-३४ १९५ इसप्रकार अमूर्त द्रव्यों के विशेष गुणों का संक्षिप्त ज्ञान होने पर अमूर्त द्रव्यों को जानने के लिंग (चिह्न, साधन, लक्षण) प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि इन विशेष गुणों द्वारा अमूर्त द्रव्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है, सिद्ध होता है। अब इसी बात को विशेष समझाते हैं - वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्यों के साधारण अवगाह का संपादन अर्थात् हेतुपनेरूप लिंग आकाश को बतलाता है; क्योंकि शेष द्रव्यों के सवर्गत न होने से उनके यह संभव नहीं है। ___ इसीप्रकार एक ही काल में गतिपरिणत समस्त जीव और पुद्गलों को लोक तक गमन का हेतुपना धर्मद्रव्य को बतलाता है; क्योंकि काल और पुद्गल अप्रदेशी हैं, इसलिए उनके यह संभव नहीं है; जीव समुद्घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भागमात्र है; इसलिए उसको यह संभव नहीं है। लोक-अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश को यह संभव नहीं है और विरुद्धकार्य का हेतु होने से अधर्मद्रव्य को यह संभव नहीं है। ___इसीप्रकार एक ही काल में स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक स्थिति का हेतुपना अधर्मद्रव्य को बतलाता है; क्योंकि काल और पुद्गल अप्रदेशी होने से उनके यह संभव नहीं है। जीव समुद्घात को छोड़कर अन्यत्र काल के असंख्यातवें भागमात्र है; इसलिए उसके यह संभव नहीं है। लोक और अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश के यह संभव नहीं है और विरुद्धकार्य का हेतु होने से धर्मद्रव्य के यह संभव नहीं है। ___ इसीप्रकार काल के अतिरिक्त शेष समस्त द्रव्यों के प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुपना काल को बतलाता है; क्योंकि उन शेष समस्त द्रव्यों के समयविशिष्टवृत्ति कालान्तर से सधती होने से उनके वह समयवृत्ति हेतुपना संभवित नहीं है। इसीप्रकार चैतन्यपरिणाम जीव को बतलाता है; क्योंकि वह चेतन होने से शेष द्रव्यों के संभव नहीं है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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