________________
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
अथ सर्वमजानन्नेकमपि न जानातीति निश्चिनोति -
जोण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे। णा, तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ।।४८।। योन विजानाति युगपदर्थान त्रैकालिकान त्रिभवनस्थान।।
ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रव्यमेकं वा ।।४८।। इह किलैकमाकाशद्रव्यमेकंधर्मद्रव्यमेकमधर्मद्रव्यमसंख्येयानि कालद्रव्याण्यनन्तानि जीवद्रव्याणि । ततोऽप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैषामेव प्रत्येकमतीतानागतानुभूयमानभेदभिन्ननिरवधिवृत्तिप्रवाहपरिपातिनोऽनन्ता: पर्यायाः। एवमेतत्समस्तमपि समुदितं ज्ञेयम् । इहैवैकं किंचिजीवद्रव्यं ज्ञातृ।
अथ यथा समस्तं दाह्यं दहन् दहन: समस्तदाह्यहेतुकसमस्तदाह्याकारपर्यायपरिणत
अब इस ४८ वीं गाथा में उसी बात को सिद्ध करते हुए यह कहा जा रहा है कि जो ज्ञान सबको नहीं जानता; वह ज्ञान एक अपने आत्मा को भी सम्पूर्णत: नहीं जान सकता। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जाने नहीं युगपद त्रिकालिक अर्थ जो त्रैलोक्य के।
वह जान सकता है नहीं पर्यय सहित इक द्रव्य को ||४८|| जोतीन काल और तीन लोक के सभी पदार्थों को एक ही साथ नहीं जानता; वह पर्यायों सहित एक द्रव्य को भी नहीं जान सकता। उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"इस विश्व में एक आकाशद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य कालद्रव्य, अनंत जीवद्रव्य और जीवद्रव्यों से भी अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं। उन सभी द्रव्यों की अर्थात् प्रत्येक द्रव्य की अतीत, अनागत और वर्तमान भेदवाली निरवधि (अनादि-अनन्त) वृत्तिप्रवाह के भीतर पड़नेवाली अनन्त पर्यायें हैं। यह समस्त द्रव्य और पर्यायों का समुदाय ज्ञेय है और इन्हीं सब में से एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है। __ अब यहाँ जिसप्रकार समस्त दाह्य (ईंधन) को जलाती हुई अग्नि, समस्त दाह्य जिसका निमित्त है - ऐसे समस्त दाह्याकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार