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प्रवचनसार
दाजवंजवाभावस्वभावतो नित्यमुक्ततां प्रतिपद्येरन् । तच्च नाभ्युपगम्यते; आत्मनः परिणामधर्मत्वेन स्फटिकस्य जपातापिच्छरागस्वभावत्ववत् शुभाशुभस्वभावत्वद्योतनात् ।।४।।
तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार स्फटिक मणि लाल और काले फूल के निमित्त से लाल और काले स्वभावरूप परिणमित होता दिखाई देता है; उसीप्रकार आत्मा कर्मोपाधि के निमित्त से शुभाशुभभावरूप परिणमित होता दिखाई देता है।" ___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को नयविवक्षा से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सांख्यों जैसी मान्यतावाला कोई शिष्य यदि ऐसा कहे कि जिसप्रकार आत्मा शुद्धनय से शुभाशुभभावरूप परिणमित नहीं होता; उसीप्रकार अशुद्धनय से भी शुभाशुभभावरूप परिणमित नहीं होता हो तोव्यवहारनय सेभी समस्त जीवों के संसार का अभाव हो जाये और सभी जीव सदा मुक्त ही सिद्ध हो जायेंगे।
इस पर वह सांख्यमतानुयायी शिष्य कहता है कि संसार का अभाव होता है तो हो जाने दो, वह तो हमारे लिए भूषण है, दूषण नहीं। उससे कहते हैं कि यह तो प्रत्यक्ष विरुद्ध बात है; क्योंकि संसारीजीवों केशभाशभभाव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। ___ इसप्रकार इस गाथा में मूलरूप से यही कहा गया है कि केवली भगवान के जो दिव्यध्वनि का खिरना, विहार होना आदि क्रियायें पाई जाती हैं; उनके कारण उन्हें रंचमात्र भी बंध नहीं होता; क्योंकि केवली भगवान के मोह-राग-द्वेष का पूर्णत: अभाव हो गया है।
उक्त कथन के आधार पर कोई अज्ञानी यह कहने लगे कि जब केवली भगवान के चलनेफिरने और बोलते रहने पर भी बंध नहीं होता तो फिर हमें भी चलने-फिरने और बोलने के काल में बंध नहीं होना चाहिए।
उसके समाधान में इस गाथा में कहा गया है कि बंध तो मोह-राग-द्वेष से होता है, शारीरिक क्रियाओं से नहीं। केवली भगवान के मोह-राग-द्वेष नहीं है; अत: उन्हें उक्त क्रियाओं के सद्भाव में भी बंध नहीं होता और संसारी जीवों के मोह-राग-द्वेष होने से बंध होता है।
केवली भगवान के समान यदि संसारी जीवों के भी औदयिकी क्रियाओं के काल में बंध का अभाव माना जायेगा तो फिर संसार ही नहीं रहेगा; क्योंकि बंधदशा का नाम ही संसार है||४६॥