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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
अथ केवलिनामिव सर्वेषामपि स्वभावविघाताभावं निषेधयति -
जदि सोसुहोव असुहोण हवदि आदा सयं सहावेण । संसारो वि ण विजदि सव्वेसिं जीवकायाणं ।।४६।।
यदि सशुभोवा अशुभो न भवति आत्मा स्वयंस्वभावेन ।
संसारोऽपि न विद्यते सर्वेषां जीवकायानाम् ।।४६।। यदि खल्वेकान्तेन शुभाशुभभावस्वभावेन स्वयमात्मा न परिणमते तदा सर्वदैव सर्वथा निर्विघातेन शुद्धस्वभावेनैवावतिष्ठते। तथा च सर्व एव भूतग्रामा: समस्तबन्धसाधनशून्यत्वा
४५ वीं गाथा में यह कहा है कि केवली भगवान की विहारादि क्रियायें औदयिकी होने पर भी क्षायिकी के समान ही हैं; क्योंकि रागादि भावों के अभाव में उन क्रियाओं के कारण उन्हें बंध नहीं होता।
अब इस ४६ वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि उक्त कथन के आधार पर यदि कोई ऐसा मान ले कि केवली भगवान के समान अन्य सभी संसारी जीवों के भी स्वभाव के विघात का अभाव है तो उसका यह मानना ठीक नहीं है; क्योंकि संसारी जीव तो स्वयं शुभाशुभभावरूप परिणमित होते हैं और इसकारण उन्हें बंध भी होता है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) यदि जीव स्वयं स्वभाव से शुभ-अशभरूप न परिणमें।
तो सर्व जीवनिकाय के संसार भी ना सिद्ध हो||४६|| यदि ऐसा माना जाय कि आत्मा स्वयं स्वभाव से अर्थात् अपने भाव से शुभ या अशुभभावरूप परिणमित नहीं होता तो सभी जीवों के संसार का अभाव सिद्ध होगा।
उक्त गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यदि एकान्त से ऐसा माना जाय कि शुभाशुभभावरूप स्वभाव में (अपने भाव में) आत्मा स्वयं परिणमित नहीं होता तो यह सिद्ध होगा कि वह सदा ही सर्वथा निर्विघात शुद्ध स्वभाव से अवस्थित है। इसप्रकार समस्त जीवसमूह समस्त बंध कारणों से रहित सिद्ध होने से संसार के अभावरूप स्वभाव के कारण नित्यमुक्तता को प्राप्त हो जावेंगे; किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्फटिक मणि के जपाकुसुम और तमालपुष्प के रंगरूप (परिणमित हो जाने के) स्वभावपने की तरह आत्मा के परिणामधर्मपना होने से शुभाशुभस्वभावयुक्तता प्रकाशित होती है।