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प्रवचनसार
अथ कुतस्तर्हि ज्ञेयार्थपरिणमनलक्षणा क्रिया तत्फलं च भवतीति विवेचयति -
उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया। तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि।।४३।।
उदयगता: कर्मांशा जिनवरवृषभैः नियत्या भणिताः।
तेषु विमूढो रक्तो दुष्टो वा बन्धमनुभवति ।।४३।। संसारिणो हि नियमेन तावदुदयगता: पुद्गलकर्मांशाः सन्त्येव । अथ स सत्सु तेषु संचेतयमानो मोहरागद्वेषपरिणतत्वात् ज्ञेयार्थपरिणमनलक्षणया क्रियया युज्यते । तत एव च क्रियाफलभूतं बन्धमनुभवति । अतो मोहोदयात् क्रियाक्रियाफले, न तु ज्ञानात् ।।४३।।
विगत गाथा में यह कहा गया है कि ज्ञेयार्थपरिणमनक्रियावालों को केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञानी के ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया नहीं होती।
अब इस ४३ वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि यदि ऐसा है तो फिर इस ज्ञेयार्थपरिणमन और उसके फलरूप क्रिया का कारण क्या है ? आखिर यह होती कैसे है ? ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया का कारण बतानेवाली ४३वीं गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जिनवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्मांश हैं।
वह राग-द्वेष-विमोह बस नित बंध का अनुभव करे||४३|| जिनवरों में श्रेष्ठ तीर्थंकरों ने संसारी जीवों के ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय प्राप्त कर्मांश नियम से होते हैं - ऐसा कहा। उन उदय प्राप्त कर्माशों के होने पर यह जीव मोही, रागी और द्वेषी होता हआ बंध का अनुभव करता है। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“संसारीजीवों के उदयगत पुद्गलकर्मांश नियम से होते ही हैं। उन उदयगत पुद्गलकर्मांशों के होने पर यह जीव उनमें ही चेतते हुए, अनुभव करते हुए मोह-राग-द्वेषरूप में परिणमित होने से ज्ञेयार्थपरिणमनरूपक्रिया से युक्त होता है और इसीकारण क्रिया के फलभूत बंध का अनुभव करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि मोह के उदय से ही क्रिया और क्रियाफल होता है, ज्ञान से नहीं।"
आचार्य अमृतचन्द्र तो यहाँ मात्र इतना ही कहते हैं कि ज्ञान बंध का कारण नहीं है, मोह