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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
परिच्छेदनिदानमथवा ज्ञानमेव नास्ति तस्य; यतः प्रत्यर्थपरिणतिद्वारेण मृगतृष्णाम्भोभारसंभावनाकरणमानसः सुदुःसहं कर्मभारमेवोपभुञ्जानः स जिनेन्द्रैरुद्गीतः।।४२।। स्वाभाविक जानपने का कारणभत क्षायिकज्ञान नहीं है अथवा उसे ज्ञान ही नहीं है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की परिणति के द्वारा मृगतृष्णा में जलसमूह की कल्पना करने की भावनावाला वह आत्मा अत्यन्त दुःसह कर्मभार को ही भोगता है - ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है।" ___ गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि ज्ञेयार्थपरिणमन है लक्षण जिसका - ऐसी क्रिया ज्ञान से नहीं होती। यहाँ ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया से क्या आशय है ? यह बात गहराई से जानने योग्य है।
आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा की उत्थानिका लिखते हुए कहा गया है कि जिसके कर्मबंध के कारणभूत हितकारी-अहितकारी विकल्परूप से जानने योग्य विषयों का परिणमन है, उसके क्षायिकज्ञान नहीं है।
टीका में लिखा है कि 'यह नीला है, यह पीला है' इत्यादि विकल्परूप से ज्ञेयपदार्थों के प्रति परिणमन करता है तो उस आत्मा को क्षायिकज्ञान नहीं है अथवा ज्ञान ही नहीं है।
उक्त कथन से एक ही बात स्पष्ट होती है कि ज्ञेयों को जानते समय जो उनमें ही अटक जाते हैं, उनमें एकत्व-ममत्व स्थापित करते हैं, कर्तृत्व-भोक्तृत्व स्थापित करते हैं; उनके लक्ष्य से अथवा उन्हें आधार बनाकर राग-द्वेषरूप परिणमित होते हैं; वे सभी ज्ञेयार्थपरिणमनस्वभाव वाले हैं।
यह ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के परज्ञेयों में एकत्व-ममत्व और कर्तृत्वभोक्तृत्वबुद्धिपूर्वक होती है और सविकल्प सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों के चारित्र मोहजन्य राग-द्वेषरूप और हर्ष-विषादरूप विकल्पात्मक होती है तथा वीतराग छद्मस्थों में अस्थिरतारूप होती है।
तात्पर्य यह है कि क्षयोपशमज्ञान में जाने गये ज्ञेय पदार्थों में एकत्व-ममत्व, कर्तृत्वभोक्तृत्व और उनके लक्ष्य से राग-द्वेषरूप परिणमन ही ज्ञेयार्थपरिणमन है।
ऐसा ज्ञेयार्थपरिणमन न तो केवलज्ञानियों को होता है और न इसप्रकार परिणमन करनेवालों को केवलज्ञान होता है; क्योंकि वे लोग तो कर्म का ही अनुभव करनेवाले हैं।
अत: जिन्हें अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख की कामना हो; वे ज्ञेयार्थपरिणमन से विरक्त हो निजभगवान आत्मा में रमण करें||४२||