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प्रवचनसार
( मालिनी) इति गदितमनीचैस्तत्त्वमुच्चावचं यत्।
चिति तदपि किलाभूत्कल्पमग्नौ हुतस्य ।। आत्मा सहित सम्पूर्ण विश्व व्याख्येय है, व्याख्या करने योग्य है; वाणी का गुंफन व्याख्या है और आचार्य अमृतचन्द्र व्याख्याता अर्थात् व्याख्या करनेवाले हैं; हे जगतजनो! इसप्रकार कहकर मोह में मत नाचो; किन्तु स्याद्वाद विद्या के बल से विशुद्धज्ञान की कला के द्वारा इस एक शाश्वत स्वतत्त्वरूप निज भगवान आत्मा को प्राप्त कर अव्याकुल रूप से नाचो, परमानन्द परिणति को प्राप्त करो।
देखो, यहाँ आचार्यदेव इतनी महान टीका लिखकर भी लिखने के श्रेय से सर्वथा अलिप्त रहकर, इसका कर्ता उन्हें कहे जाने को मोह में नाचना बता रहे हैं; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो निज भगवान आत्मा का ज्ञान-ध्यान ही एकमात्र ऐसा कार्य है; जिसे वे करना चाहते हैं, करते हैं और करने योग्य स्वीकार करते हैं।
शब्दों द्वारा लिखी गई इस टीका का कर्ता उनको कहना तो मात्र उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का कथन है; क्योंकि इस टीका के निर्माण में वे स्वयं तो निमित्त भी नहीं हैं; किन्तु उनका योग और उपयोग भी मात्र निमित्त ही है; इस टीका का उपादान कर्ता तो पौद्गलिक वर्गणायें हैं।
उक्त कथन के माध्यम से आचार्यदेव न केवल अपना निस्पृह भाव व्यक्त कर रहे हैं; अपितु एक परम सत्य का उद्घाटन भी कर रहे हैं कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यों का कर्ता-धर्ता नहीं है; प्रत्येक द्रव्य स्वयं के परिणमन का कर्ता-धर्ता स्वयं है। एक द्रव्य की परिणति को दूसरे द्रव्य की कहना मात्र उपचार ही है, उपचरित कथन ही है। ऐसा होने पर भी पर के कर्तृत्व के अहंकार में डूबा यह अज्ञानी जगत न केवल स्वयं को पर का कर्ता-धर्ता मानना है; अपितु लगभग सभी द्रव्यों को एक-दूसरे का कर्ता मानता है। उसकी यह मान्यता अज्ञान है, मोह में नाचना है। यहाँ उसी मान्यता का निषेध किया गया है।
इस तत्त्वप्रदीपिका टीका को समाप्त करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव अन्त में जो छन्द लिखते हैं; उसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) चैतन्य का गुणगान तो उतना ही कम जितना करो। थोड़ा-बहुत जो कहा वह सब स्वयं स्वाहा हो गया।