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परिशिष्ट : सैंतालीस नय
( शार्दूलविक्रीडित ) आनन्दामृतपूरनिर्भरवहत्कैवल्यकल्लोलिनीनिर्मग्नं जगदीक्षणक्षममहासंवेदन श्रीमुखम् । स्यात्कारङ्कजिनेशशासनवशादासादयन्तूल्लसत् । स्वं तत्त्वं वृतजात्यरत्नकिरणप्रस्पष्टमिदं जनाः ।। २० ।। व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्या तु गुम्फे गिरां । व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु ।। वल्गत्वद्य विशुद्धबोधकलया स्याद्वादविद्याबलात् लब्ध्वैकं सकलात्मकशाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुल: ।। २१ । । ( हरिगीत )
आनन्द अमृतपूर से भरपूर जो बहती हुई । अरे केवलज्ञान रूपी नदी में डूबा हुआ ।।
जो इष्ट है स्पष्ट है उल्लसित है निज आतमा ।
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स्याचिह्नित जिनेन्द्र शासन से उसे पहिचान लो ||२०||
आनन्दामृत के पूर से भरपूर वर्तती हुई केवलज्ञानरूपी नदी में निमग्न जगत को देखने में समर्थ, महासंवेदनारूपी लक्ष्मी से युक्त, उत्तम रत्नकिरणों के समान स्पष्ट और इष्ट, उल्लसित स्वतत्त्व रूप निज भगवान आत्मा को सम्पूर्ण जगत; जिनेन्द्र भगवान के स्याद्वादांकित शासन का आश्रय लेकर प्राप्त करे।
उक्त छन्द में आचार्यदेव सम्पूर्ण जगत को मंगल-आशीर्वाद देते हुए प्रेरणा दे रहे हैं कि हे जगत के जीवो ! तुम भी स्याद्वादांकित जिनागम का सहारा लेकर निज भगवान को प्राप्त कर सकते हो; इसलिए अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति के लिए इस दिशा में सतत प्रयास करो ।
अब इस दूसरे छन्द में आचार्यदेव अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( हरिगीत )
वाणिगुंफन व्याख्या व्याख्येय सारा जगत है। और अमृतचन्द्र सूरि व्याख्याता कहे हैं । इसतरह कह मोह में मत नाचना हे भव्यजन! । स्याविद्याबल से निज पा निराकुल होकर नचो ॥ २१ ॥