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प्रवचनसार
के समान अभाव भी वस्तु का एक धर्म है, पर वह अभावधर्म भी अभावरूप न होकर भावान्तररूप है।
तात्पर्य यह है कि नास्तित्वधर्म (अभावधर्म) की सत्ता भी वस्तु में अस्तित्वधर्म (भावधर्म) के समान ही है, नास्तित्वधर्म की भी भगवान आत्मा में अस्ति है। वह अभावधर्म भावान्तर स्वभावरूप है, गधे के सींग के समान अभावरूप नहीं है। अभाव तो उसका नाम है, क्योंकि उसका कार्य अपने आत्मा में परपदार्थों के अप्रवेशरूप है, अभावरूप है।
वह नास्तिधर्म स्वयं अभावरूप नहीं है, उसका स्वरूप अपने में पर के अभावरूप है। इस संदर्भ में 'युक्त्यनुशासन' की निम्नांकित कारिका ध्यान देने योग्य है :
"भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो, भावांतरं भाववदर्हतस्ते। हे अरहंत भगवान ! तुम्हारे मत में भाव के समान भावान्तरस्वभावरूप अभाव भी वस्तु का एक धर्म होता है।”
जिनागम में अभाव चार प्रकार के बताये गये हैं, जिनके नाम क्रमश: इसप्रकार हैं :प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव एवं अत्यन्ताभाव। अभावधर्म की सिद्धि करते हए आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा में लिखते हैं -
"भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपल्वात् । सवात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ।।९।। कार्यद्रव्यमनादि स्याद् प्राग्भावस्य निह्नवे। प्रध्वंसस्य च धर्मस्यप्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ।।१०।। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे।
अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ।।११।। हे भगवन ! पदार्थों का सर्वथा सद्भाव ही मानने पर अभावों का अर्थात् अभावधर्म का अभाव मानना होगा। अभावधर्म की सत्ता स्वीकार नहीं करने पर सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जावेंगे, सभी पदार्थ अनादि-अनन्त हो जावेंगे, किसी का कोई पृथक् स्वरूप ही न रहेगा, जो कि आपको स्वीकार नहीं है।
प्रागभाव का अभाव मानने पर सभी कार्य (पर्यायें) अनादि हो जावेंगे । इसीप्रकार प्रध्वंसाभाव नहीं मानने पर सभी कार्य (पर्यायें) अनन्त हो जावेंगे।