________________
परिशिष्ट : सैंतालीस नय
अस्तित्वधर्म के समान ही भगवान आत्मा में एक नास्तित्वधर्म भी है। जिसप्रकार स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से अस्तित्वधर्म है और उसे विषय बनानेवाला अस्तित्वनय है; उसीप्रकार परद्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा से नास्तित्वधर्म है और उसे विषय बनानेवाला नास्तित्वनय है। जिसप्रकार अस्तित्वधर्म भगवान आत्मा के अस्तित्व को कायम रखता है; उसीप्रकार नास्तित्वधर्म उसे पर से भिन्न एवं पर से सम्पूर्णतः असंपृक्त रखता है। अपने अस्तित्व को टिकाए रखनेवाला अस्तित्वधर्म है और पर के हस्तक्षेप को रोकनेवाला नास्तित्वधर्म है। इसप्रकार ये दोनों ही धर्म भगवान आत्मा को अपने से अभिन्न एवं पर से भिन्न रखते हैं ।
५२१
जिस बाण के उदाहरण से यहाँ अस्तित्वधर्म को समझाया गया है, उसी बाण के उदाहरण से नास्तित्व को भी समझाया गया है।
जिसप्रकार कोई बाण स्वद्रव्य की अपेक्षा से लोहमय है, स्वक्षेत्र की अपेक्षा से डोरी और धनुष के मध्य स्थित है, स्वकाल की अपेक्षा से संधानदशा में है और स्वभाव की अपेक्षा लक्ष्योन्मुख है; परन्तु वही बाण परबाण की अपेक्षा से अलोहमय है, परबाण के क्षेत्र की अपेक्षा से डोरी और धनुष के मध्य अस्थित है, परबाण के काल की अपेक्षा से संधानदशा में नहीं रहा हुआ है एवं परबाण के भाव की अपेक्षा से अलक्ष्योन्मुख भी है।
उसीप्रकार यह भगवान आत्मा स्वद्रव्य-क्षेत्र -काल-भाव की अपेक्षा अस्तित्वमय होने पर भी परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा नास्तित्वमय है।
इस संदर्भ में आप्तमीमांसा में समागत आचार्य समन्तभद्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है" सदैव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। १५ ।
स्वरूपादिचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से वस्तु के अस्तित्व को कौन बुद्धिमान स्वीकार नहीं करेगा ? इसीप्रकार पररूपादिचतुष्टय अर्थात् परद्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की अपेक्षा वस्तु के नास्तित्व को भी कौन बुद्धिमान स्वीकार नहीं करेगा?
यदि कोई व्यक्ति इसप्रकार अस्तित्व और नास्तित्वधर्मों को स्वीकार नहीं करता है तो उसके मतानुसार वस्तु की व्यवस्था ही सिद्ध नहीं होगी।"
अस्तित्वधर्म को भावधर्म और नास्तित्वधर्म को अभावधर्म भी कहते हैं । भाव (सद्भाव)