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परिशिष्ट : सैंतालीस नय
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देता है। उसीप्रकार यद्यपि द्रव्यनय से भगवान आत्मा चिन्मात्र ही है, तथापि उसमें जानने-देखनेरूप परिणमन भी तो पाया जाता है। भगवान आत्मा को चिन्मात्र न देख कर, उसमें विद्यमान ज्ञान-दर्शनादिरूप परिणमन को देखकर उसे ज्ञान-दर्शनादिवाला, जानने-देखनेवाला जानना पर्यायनय है; अथवा पर्यायनय से भगवान आत्मा ज्ञानदर्शनादि मात्र है।
इसप्रकार यह निश्चित हुआ कि द्रव्यनय से भगवान आत्मा पटमात्र की भाँति चिन्मात्र है और पर्यायनय से तन्तुमात्र की भाँति दर्शन ज्ञानादि मात्र है।
नय जाननेरूप भी होते हैं और कहनेरूप भी। 'ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं' इस परिभाषा के अनुसार नय ज्ञानरूप अथवा जाननेरूप होते हैं तथा वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं' - इस परिभाषा के अनुसार नय कथनरूप होते हैं।
कथनरूप नयों के अनुसार कथन करने पर इसप्रकार भी कह सकते हैं कि द्रव्यनय से भगवान आत्मा पटमात्र की भाँति चिन्मात्र कहा जाता है और पर्यायनय से उसी भगवान आत्मा को तन्तुवाला की भाँति ज्ञान दर्शनवाला भी कहा जाता है।
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तात्पर्य यह है कि आत्मा को पटमात्र की भाँति चिन्मात्र कहना द्रव्यनय है और तन्तुमात्र की भाँति दर्शन ज्ञान मात्र कहना पर्यायनय है।
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भगवान आत्मा अनन्तधर्मों का अखण्ड पिण्ड है । अनन्तधर्मात्मक यह भगवान आत्मा अनन्तनयात्मक श्रुतज्ञानरूप प्रमाण का विषय है। इस अनन्तधर्मात्मक भगवान आत्मा में चैतन्यसामान्य है स्वरूप जिसका, ऐसा एक 'द्रव्य' नामक धर्म भी है। इस द्रव्य नामक धर्म को विषय बनाने वाले नय का नाम ही द्रव्यनय है। इसीप्रकार इस भगवान आत्मा में ज्ञान दर्शनादिरूप परिणमित होना है स्वभाव जिसका, ऐसा एक 'पर्याय' नामक धर्म भी है । इस पर्याय नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम पर्यायनय है ।
मूलनयों की चर्चा में जिन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों की चर्चा की गई थी, उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों से ये द्रव्यनय और पर्यायनय भिन्न हैं ।
वहाँ तो सम्पूर्ण वस्तु को द्रव्य और पर्याय इन दो अंशों में विभाजित कर बात कही गई थी, वस्तु के व्रव्यांश को ग्रहण करनेवाले नय को द्रव्यार्थिकनय और पर्यायांश को ग्रहण करनेवाले नय को पर्यायार्थिकनय कहा गया था; पर यहाँ तो वस्तु के अनन्तधर्मों में से एक 'द्रव्य' नामक धर्म को ग्रहण करनेवाले नय को द्रव्यनय और 'पर्याय' नामक धर्म को ग्रहण करनेवाले नय को पर्यायनय कहा गया है ॥ १-२ ॥
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