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परिशिष्ट : सैंतालीस नय
आत्मा हि तावच्चैतन्यसामान्यव्याप्तानन्तधर्माधिष्टात्रेकं द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात्।
परिशिष्ट का आरंभ आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार करते हैं -
"यह आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जाता है' - यदि ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर पहले ही कहा जा चुका है और अब पुनः कहते हैं।
प्रथम तो आत्मावास्तव में चैतन्यसामान्य से व्याप्त अनन्तधर्मों का अधिष्ठाता एक द्रव्य है; क्योंकि वह अनन्तधर्मों में व्याप्त होनेवाले जो अनन्त नय हैं, उनमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से प्रमेय होता है।"
जिन ४७ नयों से यहाँ आत्मा का वर्णन किया गया है, वे ४७ नय इसप्रकार हैं :
(१) द्रव्यनय, (२) पर्यायनय, (३) अस्तित्वनय, (४) नास्तित्वनय, (५) अस्तित्वनास्तित्वनय, (६) अवक्तव्यनय, (७) अस्तित्व-अवक्तव्यनय, (८) नास्तित्वअवक्तव्यनय, (९) अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय, (१०) विकल्पनय, (११) अविकल्पनय, (१२) नामनय, (१३) स्थापनानय, (१४) द्रव्यनय, (१५) भावनय, (१६) सामान्यनय, (१७) विशेषनय, (१८) नित्यनय, (१९) अनित्यनय, (२०) सर्वगतनय, (२१) असर्वगतनय, (२२) शून्यनय, (२३) अशून्यनय, (२४) ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनय, (२५) ज्ञानज्ञेय-द्वैतनय, (२६) नियतिनय, (२७) अनियतिनय, (२८) स्वभावनय, (२९) अस्वभावनय, (३०) कालनय, (३१) अकालनय, (३२) पुरुषकारनय, (३३) दैवनय, (३४) ईश्वरनय, (३५)अनीश्वरनय, (३६) गुणीनय, (३७) अगुणीनय, (३८) कर्तृनय, (३९) अकर्तृनय, (४०) भोक्तृनय, (४१) अभोक्तृनय, (४२) क्रियानय, (४३) ज्ञाननय, (४४) व्यवहारनय, (४५) निश्चयनय, (४६) अशुद्धनय, (४७) शुद्धनय ।
क्त नामावली पर गहराई से दृष्टि डालने पर एक बात स्पष्ट होती है कि सप्तभंगी संबंधी सप्तनयों एवं चारनिक्षेप संबंधी चार नयों को छोड़कर शेष सभी ३६ नय परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों को विषय बनाने वाले होने से १८ जोड़ों के रूप में दिये गये हैं। जैसे :- नित्यनय-अनित्यनय, सर्वगतनय-असर्वगतनय, कालनय-अकालनय आदि । ___इस जगत में विद्यमान प्रत्येक वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड है। अनन्तगुणों के समान, परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले नित्य-अनित्यादि अनंत धर्मयुगल भी प्रत्येक वस्तु में पाये जाते हैं।