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चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार श्रेणिक जैसे लोग इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। अथासत्संगं प्रतिषेध्यत्वेन दर्शयति । अथ लौकिकलक्षणमुपलक्षयति -
णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि। लोगिगजणसंसग्गंण चयदि जदि संजदोण हवदि।।२६८।। णिग्गंथं पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥२६९।। निश्चितसूत्रार्थपदः समितकषायस्तपोऽधिकश्चापि। लौकिकजनसंसर्गंन त्यजति यदि संयतो न भवति ।।२६८।। नैर्ग्रन्थ्यं प्रव्रजितो वर्तते यद्यैहिकैः कर्मभिः ।
स लौकिक इति भणित: संयमतप:संप्रयुक्तोऽपि ।।२६९।। मारीचि तो भगवान महावीर बनकर मुक्ति प्राप्त कर ही चुके हैं और राजा श्रेणिक भी निकट भविष्य में ही महापद्म तीर्थंकर पद प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त करनेवाले हैं।
यहाँ तो मात्र तत्काल या कुछ समय बाद भूल सुधारने की बात कही है; परन्तु वस्तुस्थिति तो यह है कि यह जीव अनंतकाल के बाद भी अपनी भूल सुधार कर कर्मों से मुक्त हो सकता है। अत: भूल तो जितनी जल्दी सुधर जाय, उतना ही अच्छा है।
यहाँ जो कुछ कहा गया है, उसका उद्देश्य तो भूल न करने और कदाचित् भूल हो जाय तो जल्दी से जल्दी भूल सुधार कर लेने की प्रेरणा देना ही है ।।२६५-२६७ ।।
विगत गाथाओं में श्रमणचर्या और परस्पर व्यवहार की चर्चा करने के उपरान्त अब असत्संग अर्थात् लौकिकजनों के संग का निषेध करते हुए लौकिकजनों का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) सूत्रार्थविद जितकषायी अर तपस्वी हैं किन्तु यदि। लौकिकजनों की संगति न तजे तो संयत नहीं।।२६८।। निर्ग्रन्थ हों तपयुक्त संयमयुक्त हों पर व्यस्त हों।
इहलोक के व्यवहार में तो उसे लौकिक ही कहा ||२६९|| जिसने सूत्रों और अर्थों के पद को अर्थात् ज्ञातृतत्व (आत्मा) को निश्चित किया है, कषायोंकाशमन किया है और जो विशेष तपस्वी हैं, यदिवह भीलौकिक जनों के संसर्गको नहीं छोड़ता है तो वह भी संयत नहीं है।
जो मुनिराज निर्ग्रन्थरूप से दीक्षित होने के कारण संयम और तपसे युक्त हों, उन्हें भी इस