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________________ ५०० प्रवचनसार दोष नहीं है; यदि कुछ समय बाद छोड़ता है तो भी दोष नहीं है। हाँ, यदि वह वहाँ ही अनुबंध कर तीव्र कषाय के कारण अतिप्रसंग करता है, बार-बार वही करता है तो फिर चारित्र से भ्रष्ट होता ही है।" उक्त कथन का भाव स्पष्ट करते हुए इसके आगे वे लिखते हैं - "इसका भाव यह है कि बहुश्रुतों को अल्पश्रुत तपस्वी मुनियों का दोष ग्रहण नहीं करना चाहिए; अल्पश्रुतमुनियों को भी कुछ भी पाठमात्र ग्रहण कर, बहुश्रुत मुनियों का दोष ग्रहण नहीं करना चाहिए; किन्तु सारपद ग्रहण कर आत्मभावनाही करना चाहिए; क्योंकि राग-द्वेष की उत्पत्ति होने पर बहुश्रुतों को श्रुत का फल नहीं मिलता और तपस्वियों को तप का फल नहीं मिलता। अत: परस्पर दोष ग्रहण करना ठीक नहीं है।" उक्त स्पष्टीकरण २६५वीं गाथा के संदर्भ में दिया गया है। ऐसा ही स्पष्टीकरण वे २६६वीं व २६७वीं गाथाओं के संदर्भ में भी देते हैं; जो इसप्रकार है - “यदि पहले अभिमान के कारण अधिक गुणवालों से विनय की इच्छा करता है; परन्तु बाद में विवेक के बल से आत्मनिंदा करता है तोअनंत संसारी नहीं होता। हाँ, यदि मिथ्याभिमान से प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के लिए दुराग्रह करता है तो फिर अनंत संसारी होता ही है। अथवा यदि कुछ समय बाद भी आत्मनिंदा करता है तो भी अनंत संसारी नहीं होता। स्वयं चारित्र गुण में अधिक हों; फिर भी यदि ज्ञानादि गुणों की वृद्धि के लिए बहुश्रुतों की वंदनादि क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं तो दोष नहीं है; परन्तु यदि मात्र प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के लिए वन्दनादि करते हैं तो अतिप्रसंग से दोष होता है। यहाँ तात्पर्य यह है कि वन्दनादि क्रियाओं या तत्त्वविचार आदि में भी जहाँराग-द्वेष होते हैं; वहाँ सभी जगह दोष ही दोष हैं। यदि कोई कहे कि यह तो आपकी कल्पना है, आगम में तो कहीं ऐसा है नहीं। आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है, सभी आगम राग-द्वेष को दूर करने के लिए ही है; किन्तु जोमनिराज उत्सर्ग-अपवादरूप से आगम संबंधीनय विभाग को नहीं जानते, वे ही राग-द्वेष करते हैं, अन्य कोई नहीं।" ___ आचार्य जयसेन बात तो वही करते हैं, जो आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र ने कही है; पर वे यह भी कहते हैं कि भूलसुधार की गुंजाइश तो सर्वत्र ही होती है। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक समय की भूल का फल अनंत काल तक भोगना पड़े ? जबतक भूल में है, तबतक तो उसका फल भोगना ही होगा; किन्तु जब भूल मिट जाये तो फिर कल्याण होना भी सुनिश्चित ही है; क्योंकि सभी जीव अनादि से तो भूल में ही हैं; पर अनेक जीव भूल मेट कर सिद्ध अवस्था भी प्राप्त करते रहे हैं और करते रहेंगे। मारीचि और राजा
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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