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चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार
का सेवन करनेवाला है, वह पुरुष सुमार्ग का भागी होता है ।
विषयकषायास्तावत्पापमेव, तद्वन्त: पुरुषा अपि पापमेव तदनुरक्ता अपि पापानुरक्तत्वात् पापमेव भवन्ति । ततो विषयकषायवन्तः स्वानुरक्तानां पुण्यायापि न कल्प्यन्ते, कथं पुनः संसारनिस्तारणाय । ततो न तेभ्यः फलमविपरीतं सिद्ध्येत् ।। २५८ ।।
उपरतपापत्वेन, सर्वधर्मिमध्यस्थत्वेन, गुणग्रामोपसेवित्वेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयोगपद्यपरिणतिनिवृत्तैकाग्र्यात्मकसुमार्गभागी, स श्रमणः स्वयं परस्य मोक्षपुण्यायतनत्वादविपरीतफलकारणं कारणमविपरीतं प्रत्येयम् ।। २५९।।
अथाविपरीत फलकारणं कारणमविपरीतं व्याख्याति -
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असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । त्रियंति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्तो ।। २६०।।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं“विषयकषाय तो पाप ही हैं, विषयकषायवान पुरुष भी पाप हैं और उन विषयकषायवान पुरुषों में अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप ही हैं। इसलिए जब विषयकषायवान पुरुष स्वानुरक्त पुरुषों को, पुण्य के कारण भी नहीं होते तो फिर वे संसार से निस्तारक कैसे हो सकते हैं ? इसलिए उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता ।
पाप के रुक जाने से सभी धार्मिकों के प्रति स्वयं मध्यस्थ होने से और गुण समूह का सेवन करने से जो श्रमण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की युगपत् परिणति से रचित एकाग्रतारूप सुमार्ग के भागी हैं; वे श्रमण स्व और पर को मोक्ष व पुण्य के आयतन हैं; इसलिए वे अविपरीत फल के कारण हैं - ऐसी प्रतीति करना चाहिए ।"
इन गाथाओं में यही स्पष्ट किया गया है कि जो पुरुष विषय-कषाय के पोषण में मग्न हैं, विषय-कषाय की पूर्ति को सुख मानते हैं; ऐसे अज्ञानी जीवों का विषय-कषाय के पोषणरूप उपकार करना धर्मरूप कैसे हो सकता है, धर्म का कारण भी कैसे हो सकता है; वह तो साक्षात् पाप है। ऐसे पापी जीव स्व-पर का कल्याण कैसे कर सकते हैं। उनकी सेवा करना कल्याण का कारण नहीं है ।
जो ज्ञानी जीव स्व-पर के बीच भेदज्ञान करनेवाले हैं, विषय-कषायों से विरक्त हैं; वे ज्ञानी जीव ही स्व-पर का कल्याण करनेवाले हैं। अत: उनकी सेवा करना भी कल्याण का कारण है ।। २५८ - २५९।।
जो बात विगत गाथाओं में समझाई गई है; अब उसी बात को इस गाथा में विशेषरूप से