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प्रवचनसार
___ अथ कारणवैपरीत्यात् फलमविपरीतं न सिध्यतीति श्रद्धापयति । अथाविपरीतफलकारणं कारणमविपरीतं दर्शयति
जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु । किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होति ।।२५८।। उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु। गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ।।२५९।।
यदि ते विषयकषाया: पापमिति प्ररूपिता वा शास्त्रेषु । कथं ते तत्प्रतिबद्धाः पुरुषा: निस्तारका भवन्ति ।।२५८।। उपरतपापः परुषः समभावो धार्मिकेष सर्वेष।।
गुणसमितितोपसेवी भवति स भागी सुमार्गस्य ।।२५९।। श्रद्धा करनेवालों के शुभभाव एकाध भव में अनुकूलता प्रदान करके अन्ततोगत्वा निगोद में ले जाते हैं। उन्हें जो एकाध भव की अनुकूलता प्राप्त होती है; वह सुदेव और सुमनुष्यत्व रूप भी हो सकती है और भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों या कुमनुष्यों के रूप में भी हो सकती है। ___ अत: शुभभाव और उनके फल में प्राप्त होनेवाली क्षणिक अनुकूलता में सुखबुद्धि छोड़कर वीतरागी सर्वज्ञदेव कथित तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।।२५५-२५७।।
विगत गाथाओं में कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता होती हैं' - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल नहीं मिलता, अविपरीत फल तो अविपरीत कारण से ही होता है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) शास्त्र में ऐसा कहा कि पाप विषय-कषाय हैं। जो पुरुष उनमें लीन वे कल्याणकारक किसतरह||२५८|| समभाव धार्मिकजनों में निष्पाप अर गणवान हैं।
सन्मार्गगामी वे श्रमण परमार्थ मग में मगन हैं।।२५९।। शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि जब विषय-कषाय पाप हैं, तब उनसे प्रतिबद्ध (विषयकषायों में लीन) पुरुष निस्तारक (पार लगाने वाले) कैसे हो सकते हैं?
जिसकापापभाव रुक गया है, जो सभीधार्मिकों के प्रति समभाववान है और जोगणों