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प्रवचनसार
अथ ते श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्यव्यापकानेकान्तात्मकश्रुतज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमनात् ।
अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ।। २३५ ।। अथागमज्ञानतत्पूर्वतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वसंयतत्वानां यौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं
नियमयति
आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स ।
णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ।। २३६ ।। आगमपूर्वा दृष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य ।
नास्तीति भणति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ।। २३६ ।।
इह हि सर्वस्यापि स्यात्कारकेतनागमपूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्ट्या शून्यस्य क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक अनेकान्तमय होने से आगम को प्रामाणिकता प्राप्त है। इसलिए सभी पदार्थ आगमसिद्ध ही हैं ।
वे सभी पदार्थ श्रमणों को स्वयमेव ही ज्ञेयभूत होते हैं; क्योंकि श्रमण विचित्र गुणपर्यायवाले सभी द्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं ।
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तात्पर्य यह है कि आगम चक्षुओं से कुछ भी अदृश्य नहीं है, अगम्य नहीं है । '
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि आगम और परमागम के अभ्यास से सभी पदार्थों को जाना जा सकता है; अत: श्रमणजन आगमचक्षु होते हैं ।। २३५ ।।
विगत गाथाओं में आगमज्ञान की प्रतिष्ठा स्थापित करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह समझाते हैं कि आगमज्ञानपूर्वक तत्त्वश्रद्धान और ज्ञान - 2 - श्रद्धानपूर्वक संयम - इसप्रकार ज्ञान, श्रद्धान और संयम की एकता ही मोक्षमार्ग है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है( हरिगीत )
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जिनागम अनुसार जिनकी दृष्टि न वे असंयमी ।
यह जिनागम का कथन है वे श्रमण कैसे हो सकें ||२३६ ॥
'इस लोक में जिसकी आगमपूर्वक दृष्टि नहीं है, उसके संयम भी नहीं हो सकता' - ऐसा सूत्र में कहा है तथा जो असंयत है, वह श्रमण कैसे हो सकता है?
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"जो जीव स्याद्वादमयी आगमज्ञानपूर्वक होनेवाली तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण वाली दृष्टि से शून्य हैं, उनके संयम ही सिद्ध नहीं होता; क्योंकि स्वपर के विभाग के अभाव के कारण काया