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चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार अथागमचक्षुषां सर्वमेव दृश्यत एवेति समर्थयति -
सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं । जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ।।२३५।।
सर्वे आगमसिद्धा अर्था गुणपर्यायश्चित्रैः ।
जानन्त्यागमेन हि दृष्ट्वा तानपि ते श्रमणाः ।।२३५।। आगमेन तावत्सर्वाण्यपिद्रव्याणि प्रमीयन्ते, विस्पष्टतर्कणस्य सर्वद्रव्याणामविरुद्धत्वात् । विचित्रगुणपर्यायविशिष्टानि च प्रतीयन्ते, सहक्रमप्रवृत्तानेकधर्मव्यापकानेकान्तमयत्वेनैवागमस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः । अत: सर्वेऽर्था आगमसिद्धा एव भवन्ति। आत्महितकारी है ही नहीं, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की भी यही स्थिति है; क्योंकि वे भी बहिर्मुखी हैं; मात्र पुद्गल को ही देखते-जानते हैं।
आगम के अभ्यासरूप श्रुतज्ञान ही एकमात्र ऐसा ज्ञान है कि जो आत्महित में साधन बनता है; उसमें सहयोगी मतिज्ञान को भी इसमें शामिल कर सकते हैं। भले ही ये दोनों ज्ञान परोक्षज्ञान हों, पर हैं उपयोगी; पर प्रत्यक्षज्ञान होने पर भी अवधि और मन:पर्ययज्ञान उपयोगी नहीं; क्योंकि वे मात्र पुद्गल को ही जानते हैं, सबको नहीं; जबकि मति-श्रुतज्ञान का विषय सभी पदार्थ हैं।
हाँ, यहाँ एक प्रश्न अवश्य हो सकता है कि सिद्धों के समान अरहंत भगवान भी तो सर्वत:चक्षु ही हैं ?
हाँ, हैं, अवश्य हैं; क्योंकि वे भी अतीन्द्रिय ज्ञानी (केवलज्ञानी) हैं; उन्हें यहाँ सिद्धों में ही शामिल समझना चाहिए।।२३४||
विगत गाथा में कही गई बात का ही समर्थन इस गाथा में किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि आगमरूप चक्षु से सभी कुछ दिखाई देता है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जिन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्यय सहित।
जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित ||२३५|| अनेकप्रकार की विचित्र गण-पर्यायों से सहित सभी पदार्थ आगमसिद्ध हैं। उन्हें भीवे श्रमण आगम द्वारा देखकर ही जानते हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"सभीद्रव्य आगम द्वारा जाने जाते हैं; क्योंकि सभीद्रव्य विशेष स्पष्ट तर्कणासे अविरुद्ध हैं। आगम से वे सभी द्रव्य विचित्र गुणपर्यायवाले प्रतीत होते हैं; क्योंकि सहप्रवृत्त और