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प्रवचनसार
इसीप्रकार बाल, वृद्ध, श्रान्त और रोगी श्रमणों द्वारा शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का मूलभूत साधन होने से शरीर का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य मृदु आचरण करते हुए भी शुद्धात्मतत्त्व के मूल साधक संयम का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य अति कर्कश आचरण करना उत्सर्ग सापेक्ष अपवादमार्ग है।
उक्त कथन में यह कहा गया है कि मुनिराजों को सर्वप्रकार से उत्सर्ग और अपवादमार्ग की मैत्रीपूर्वक अपने आचरण को व्यवस्थित करना चाहिए ।'
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते दिखाई देते हैं; तथापि वे उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की परिभाषा सरल भाषा में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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अथोत्सर्गापवादविरोधदौःस्थमाचरणस्योपदिशति -
आहारे व विहारे देतं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ।। २३१ । ।
"अपने शुद्धात्मा से भिन्न बहिरंग - अंतरंगरूप सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग उत्सर्गमार्ग है और उक्त उत्सर्ग मार्ग में असमर्थ मुनिराजों द्वारा शुद्धात्मा की भावना के सहकारी - कारणभूत कुछ प्रासुक आहार, ज्ञान के उपकरण आदि जिस मार्ग में ग्रहण किये जाते हैं, वह मार्ग अपवादमार्ग है । "
उक्त गाथा में छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले मुनिराजों के संदर्भ में चार मार्गों की चर्चा की है - १. उत्सर्गमार्ग, २. अपवादमार्ग, ३. अपवाद सापेक्ष उत्सर्गमार्ग और ४. उत्सर्ग सापेक्ष अपवादमार्ग |
शुद्धोपयोगरूप सातवें और उसके आगे के गुणस्थानों में उत्सर्गमार्ग ही होता है, जो साक्षात् मुक्ति का कारण है। तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध परिणति के साथ रहनेवाले शुभोपयोगरूप छठवें गुणस्थान में अपवादमार्ग होता है; जो देवलोक आदिका कारण है । इसप्रकार मुनिराज अपवाद से उत्सर्ग में और उत्सर्ग से अपवाद में जाते-आते रहते हैं । यहाँ मूल बात यह है कि बाल, वृद्ध, थकित और रोगी मुनिराज इनमें से कौनसा मार्ग अपनाये ? इसका समाधान करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि वे अपवाद सापेक्ष उत्सर्गमार्ग और उत्सर्ग सापेक्ष अपवादमार्ग को अपनायें ।
यदि कोई मुनिराज उत्सर्गमार्ग के हठ से अतिकर्कश आचरण के पालने से मृत्यु को प्राप्त