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नहीं लगती ? जो वस्तुएँ सामान्य श्रावक भी नहीं खाते, उनके बारे में उक्त प्रसंग में कहना..........?
'कुछ
प्रवचनसार
उत्तर - यहाँ प्रत्यक्ष मधु-मांस की बात नहीं है, अपितु त्रस जीवों के शरीर को मांस कहते हैं और असावधानी से या अमर्यादित वस्तुओं के सेवन से जो परोक्ष संभावना है, उससे सावधान रहने की बात है। इस लोक में कुछ लोग ऐसे भी तो हैं; जो इसप्रकार के आरोप तीर्थंकर मुनिराज महावीर पर भी लगाते हैं; अतः यह चर्चा यहाँ अनावश्यक नहीं है ।। ३२-३३ ॥
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तीसरी गाथा इसप्रकार है अप्पड
पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स ।
दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो ।। ३४ । । अथोत्सर्गापवादमैत्रीसौस्थित्यमाचरणस्योपदिशति -
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बालो वा वुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ।। २३० ।। बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतो वा पुनर्लानो वा । चर्यां चरतु स्वयोग्यां मूलच्छेदो यदा न भवति ।। २३० ।।
बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदोन यथा स्यात्तथा
( हरिगीत )
जिनागम अविरुद्ध जो आहार होवे हस्तगत ।
नहीं देवे दूसरों को दे तो प्रायश्चित योग्य हैं ||३४||
हाथ में आया हुआ आगम से अविरुद्ध आहार दूसरों को नहीं देना चाहिए। दे दिये जाने पर वह भोजन खाने योग्य नहीं रहता। फिर भी यदि कोई वह भोजन करता है तो वह प्रायश्चित्त के योग्य है ।
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए टीका में लिखा गया है कि जो हाथ में आया हुआ आहार दूसरों को नहीं देता है, उससे उसकी मोहरहित आत्मतत्त्व की भावनारूप मोहरहितवीतरागता ज्ञात होती है। तात्पर्य यह है कि उसे किसी से राग ही नहीं है तो फिर वह किसी को वह आहार देगा ही क्यों ? क्योंकि राग बिना तो आहार दिया नहीं जाता। अरे भाई ! मुनिराज तो आहार लेते हैं; देते नहीं । वे स्वयं तो आहार बनाते नहीं और उनके लिए दूसरों से प्राप्त आहार दूसरे को देने के भावरूप दया उनके वीतरागी व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है ||३४||