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________________ ४४४ प्रवचनसार है और रात्रि भोजन में अंतरंग अशुद्धि व्यक्त ही है; इसलिए रात्रि में भोजन करनेवाला साधु युक्ताहारी योगी नहीं है। ___रस की अपेक्षासे रहित आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि वही अंतरंगशुद्धि युक्त है। रस की अपेक्षावाला आहार तो अंतरंग अशुद्धि से अत्यन्त हिंसायतन है; इसलिए युक्ताहार नहीं है। उसका सेवन करनेवाला, अंतरंग अशुद्धि पूर्वक सेवन करता है; इसलिए वह साधु युक्ताहारी योगी नहीं है। मधु-मांस रहित आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि उसी के हिंसायतनपने का अभाव है। मधु-मांस सहित भोजन तो हिंसायतन होने से युक्ताहार नहीं है और ऐसे आहार के सेवन से अंतरंग अशुद्धि व्यक्त होने से ऐसा आहार करनेवाला साधुयुक्ताहारी योगी नहीं है। यहाँमधुयुक्तः । एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । मधुमांसमत्र हिंसायतनोपलक्षणं, तेन समस्तहिंसायतनशून्य एवाहारो युक्ताहारः ।।२२९।। मांस हिंसायतन का उपलक्षण है; इसलिए 'मधु-मांस रहित आहार ही युक्ताहार है' - इस कथन से यह समझना चाहिए कि समस्त हिंसायतन शून्य आहार ही युक्ताहार है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में गाथा का अर्थ करने के उपरान्त कहते हैं कि निश्चयनय से कही गई ज्ञानानन्द प्राणों की रक्षारूप और रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित भाव-अहिंसा तथा परजीवों के बहिरंग प्राणों के व्यपरोपण की निवृत्ति रूप द्रव्यअहिंसा- ये दोनों प्रकार की अहिंसा युक्ताहार में ही संभव है। इसलिए जो इससे विपरीत आहार है, वह युक्ताहार नहीं हो सकता; क्योकि उसमें भावहिंसा और द्रव्यहिंसा - दोनों का सद्भाव होता है। इस सबका संक्षिप्त सार यह है कि मुनिराज दिन में एक बार भिक्षावृत्ति से सरस या नीरस, मद्य-मांस से रहित, समस्त हिंसायतन से मुक्त, जैसा जो कुछ प्रासुक आहार, सहजभाव से विधिपूर्वक प्राप्त हो जाय, उसमें से अपने शरीर को टिकाने के लिए वीतराग भाव से थोड़ाबहुत ग्रहण कर लेते हैं। मुनिराजों का इसप्रकार का आहार ही युक्ताहार है।।२२९ ।। इसके बाद तात्पर्यवृत्ति टीका में ३ गाथाएँ प्राप्त होती हैं, जो तत्त्वप्रदीपिका में नहीं हैं। उनमें से आरंभ की दो गाथाएँ तो मांस के दोषों को बतानेवाली ही हैं और अन्त की एक गाथा में यह कहा गया है कि पाणिगत आहार प्रासुक होने पर भी अन्य को नहीं देना चाहिए। २२९वीं गाथा में युक्ताहार की व्याख्या करते हए अन्त में यह कहा गया है कि मध व मांस सर्वथा त्यागने योग्य हैं। उसी संदर्भ में प्रस्तुत आरंभ की दो गाथाओं में मांसाहार के दोषों को
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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