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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार आवरण सहित पृथक् चिह्न कहा गया है।
महिलाओं की परिणति स्वभाव से ही प्रमादमयी होती है, इसलिए उन्हें प्रमदा कहा गया है। प्रमाद की बहुलता होने से ही उन्हें प्रमदा कहा जाता है।
महिलाओं के मन में मोह, द्वेष, भय, ग्लानि और विचित्र प्रकार की माया निश्चित होती है; इसलिए उन्हें उसीभव से मोक्ष नहीं होता।
इस जीव लोक में महिलायें एक भी दोष से रहित नहीं होती और उनके अंग भी ढके हए नहीं हैं। इसलिए उनके बाहा का आवरण कहा है।
महिलाओं में शिथिलता और उनके चित्त में चंचलता होती है तथा अचानक (ऋतुसमय में) रक्त प्रवाहित होता है और उनमें सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती रहती है।
महिलाओं के लिंग (योनि स्थान) में, दोनों स्तनों के बीच में, नाभि में और काँख में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती रहती है - ऐसा होने पर उनके संयम कैसे हो सकता है?
यद्यपि महिलासम्यग्दर्शन से शुद्ध हो, आगम के अध्ययन से भीयुक्त हो और घोर चारित्र का आचरण भी करती हो; तथापि उसके निर्जरा नहीं होती- ऐसा कहा गया है।
इसलिए जिनेन्द्र भगवान ने उन महिलाओं का लिंग (वेष) वस्त्र सहित कहा है। कुल, रूप, उम्र से सहित जिनागमानुसार अपने योग्य आचरण करती हुई वे श्रमणी-आर्यिका कहलाती हैं।
तीन वर्गों में से कोई एक वर्णवाला, नीरोग शरीरी, तपश्चरण कोसहन करने योग्य उम्र व सुन्दर मुखवाला तथालोकनिन्दासेरहित पुरुष दीक्षाग्रहण करने के योग्य होता है।
रत्नत्रय के नाश को जिनेन्द्रदेव ने भंग कहा है और शेष भंग (शरीर के किसी अंग का खण्डित हो जाना, वायु का रोग हो जाना, अंडकोषों का बढ़ जाना आदि) के द्वारा वह सल्लेखनाके योग्य नहीं होता।
आचार्य जयसेन ने उक्त गाथाओं की टीका में बहुत कुछ तो गाथाओं में समागत भाव का ही स्पष्टीकरण किया है; फिर भी कुछ महत्त्वपूर्ण बातें ऐसी हैं कि जिनका उल्लेख करना आवश्यक है।
२६वीं गाथा की टीका में वे स्वयं एक प्रश्न उठाते हैं कि जो दोष महिलाओं में बताये गये हैं; क्या वे दोष पुरुषों में नहीं हैं?
उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है। यद्यपि ये दोष थोड़े-बहुत