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प्रवचनसार
तम्हा तं पडिरूवं लिंगं तासिं जिणेहिं णिद्दिटुं । कुलरूववओजुत्ता समणीओ तस्समाचारा ।।२८।। वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा। सुमुहो कुच्छारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो।।२९।। जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहिं णिट्ठिो। सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणाअरिहो।।३०।।
( हरिगीत) नारियों को उसी भव में मोक्ष होता ही नहीं। आवरणयुत लिंग उनको इसलिए ही कहा है|२१|| प्रकृतिजन्य प्रमादमय होती है उनकी परिणति। प्रमादबहुला नारियों को इसलिए प्रमदा कहा ।।२२।। नारियों के हृदय में हों मोह द्वेष भय घृणा। माया अनेकप्रकार की बस इसलिए निर्वाण ना ||२३|| एक भी है दोष ना जो नारियों में नहीं हो। अंग भी ना ढके हैं अतएव आवरणी कही ||२४|| चित्त चंचल शिथिल तन अर रक्त आवे अचानक।
और उनके सक्ष्म मानव सदा ही उत्पन्न हों ||२५|| योनि नाभि काँख एवं स्तनों के मध्य में| सूक्ष्म जिय उत्पन्न होते रहें उनके नित्य ही||२६|| अरे दर्शन शुद्ध हो अर सूत्र अध्ययन भी करें। घोर चारित्र आचरे पर न नारियों के निर्जरा ||२७|| इसलिए उनके लिंग को बस सपट ही जिनवर कहा। कुलरूप वययुत विज्ञ श्रमणी कही जाती आर्यिका ||२८|| त्रिवर्णी नीरोग तप के योग्य वय से युक्त हो। सुमुख निन्दा रहित नर ही दीक्षा के योग्य हैं।।२९|| रतनत्रय का नाश ही है भंग जिनवर ने कहा।
भंगयुत हो श्रमण तो सल्लेखना के योग्य ना ||३०|| निश्चय से महिलाओं को उसी भव में मोक्ष नहीं देखा गया; इसलिए महिलाओं के