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प्रवचनसार
नहीं। यहाँ तात्पर्य यह है कि वस्तु धर्म होने से परम निर्ग्रन्थपना ही अवलम्बन योग्य है।"
इस गाथा में यह कहा गया है कि यद्यपि अपवादमार्ग में वर्तते मुनिराजों का भी मुनित्व खण्डित नहीं होता; तथापि उत्कृष्ट तो उत्सर्गमार्ग ही है।
आचार्यदेव कहते हैं कि जब अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय का विषय एकक्षेत्रावगाही शरीर भी उपधि है तो फिर उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के विषय पीछी-कमण्डलु आदि या वस्त्रादि की तो बात ही क्या कहना?
शरीर की स्थिति तो यह है कि उसे छोड़ा नहीं जा सकता; पर उसमें से अपनत्व तो तोड़ा जा सकता है, उसके प्रति होनेवाला राग तो छोड़ा जा सकता है, उसके साज-शृंगार का भाव तो छोड़ा जा सकता है; यही कारण है कि आचार्यदेव उसका उदाहरण देकर अन्य परिग्रह का पूर्णत: निषेध कर रहे हैं।।२२४||
इसके बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में ११ गाथाएँ ऐसी प्राप्त होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं हैं। ___उक्त गाथाओं में श्वेताम्बरमत मान्य स्त्री मुक्ति का निषेध किया गया है। पहली गाथा में शंका उपस्थित की गयी है, शेष गाथाओं में उसका समुचित समाधान प्रस्तुत कर अन्त में कैसा पुरुष दीक्षा के योग्य है - यह बताकर प्रकरण को समाप्त कर दिया है। शंका प्रस्तुत करनेवाली गाथा इसप्रकार है -
पेच्छदिण हि इह लोगं परं च समणिंददेसिदो धम्मो। धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ।।२०।।
(हरिगीत) लोक अर परलोक से निरपेक्ष है जब यह धरम |
पथक से तब क्यों कहा है नारियों के लिंग को||२०|| श्रमणों में इन्द्र, जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताया गया धर्म जब इस लोक और पर लोक की अपेक्षा नहीं रखता; तब इस धर्म में महिलाओं के लिंग को भिन्न क्यों कहा गया है? ___ यह तो आप जानते ही हैं कि अष्टपाहुड में तीन लिंगों की चर्चा की गई है। जिस गाथा में उक्त चर्चा प्राप्त होती है, वह गाथा इसप्रकार है -
एगं जिणस्स रूवं बिदियं उक्किट्ठसावयाणं तु।
१. अष्टपाहुड़ : दर्शनपाहुड़, गाथा १८