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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
४२९ नहीं करती। यही कारण है कि उन्हें उपधि नहीं माना गया अथवा यह उपधि अपवाद मार्ग में अनिषिद्ध है।।२२३।।
२२३वीं गाथा में यह कहा गया है कि अपवाद मार्ग में पीछी, कमण्डलु और पोथी की उपधि अनिषिद्ध है और अब यहाँ २२४वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि वस्तुधर्म तो उत्सर्ग मार्ग ही है, अपवाद मार्ग नहीं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथोत्सर्ग एव वस्तुधर्मो, न पुनरपवाद इत्युपदिशति -
किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि। संग त्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्तमुट्ठिा ।।२२४।।
किं किंचनमिति तर्कः अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि।
संग इति जिनवरेन्द्रा अप्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ।।२२४।। अत्र श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमानेऽत्यन्तमुपात्तदेहेऽपिपरद्रव्यत्वात्परिग्रहोऽयं न नामानुग्रहार्हः किंतूपेक्ष्य एवेत्यप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तोभगवन्तोऽर्हदेवाः। अथ तत्र शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसंभावनरसिकस्य पुंस:शेषोऽन्योऽनुपात्तः परिग्रहोवराकः किंनाम स्यादिति व्यक्त एव हि तेषमाकूतः। अतोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मोन पुनरपवादः। इदमत्र तात्पर्यं, वस्तुधर्मत्वात्परमनैर्ग्रन्थ्यमेवावलम्ब्यम् ।।२२४।।
(हरिगीत ) जब देह भी है परिग्रह उसको सजाना उचित ना।
तो किसतरह हो अन्य सब जिनदेव ने ऐसा कहा ।।२२४|| जबकि जिनेन्द्र भगवान ने मुमुक्षु के लिए 'देह भी परिग्रह' - ऐसा कहकर देह से भी अप्रतिकर्मपना कहा है: तब उनके अन्य परिग्रह तो कैसे हो सकता है?
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यहाँ, श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया, ऐसे अत्यन्त नजदीकी शरीर में भी यह शरीर परद्रव्य होने से परिग्रह है, वस्तुत: यह अनुग्रह योग्य नहीं है, किन्तु उपेक्षा योग्य है' - ऐसा कहकर उसका साज-शृंगार नहीं करने का उपदेश अरहंत भगवान के द्वारा दिया गया है; तब फिर यहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों की दृष्टि में शेष अन्य अप्राप्त परिग्रह अनुग्रह के योग्य कैसे हो सकता है ? ऐसा आशय अरंहतदेव का व्यक्त ही है। इससे निश्चित होता है कि उत्सर्गही वस्तुधर्म है, अपवाद