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प्रवचनसार
का आयतनभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छेद अत्यन्त निषेध्य है; उन-उन सभी प्रकारों से अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद भी पूर्णत: निषेध्य है, त्यागने योग्य है।" अथैकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वादुपधिस्तद्वत्प्रतिषेध्य इत्युपदिशति -
हवदिवण हवदिबंधोमदम्हिजीवेऽध कायचेट्टम्हिी
बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।।२१९।। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में अयताचार का अर्थ निर्मल आत्मानुभूतिरूप भावना लक्षण प्रयत्न से रहित किया है। तात्पर्य यह है कि आत्मानुभूति के प्रति असावधान होना ही अयताचार है।
उक्त गाथा का अर्थ लिखने के उपरान्त तात्पर्य स्पष्ट करते हए वे लिखते हैं -
“शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण शुद्धोपयोगपरिणत पुरुष के, छह काय के जीव समूहरूप लोक में विचरण करते हुए, यद्यपि बाह्य में द्रव्यहिंसा है; तथापि निश्चय हिंसा नहीं है। इसलिए शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चय हिंसा पूर्णत: छोड़ देना चाहिए।"
यद्यपि अयत्नाचार का अर्थ असावधानीपूर्वक आचरण और यत्नाचार का अर्थसावधानी पूर्वक आचरण माना जाता है; तथापि यह अर्थ व्यवहारनय का कथन ही है; क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा तो अयत्नाचार का अर्थ आत्मा के प्रति असावधानी और यत्नाचार का अर्थ आत्मा के प्रति सावधानी ही है। आचार्य जयसेन के उक्त कथन में यह बात अत्यन्त स्पष्ट है।
इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि अयत्नाचारी श्रमण के निमित्त से चाहे जीव मरे, चाहे न मरे; पर उसे छहकाय के जीवों का हिंसक माना गया है। इसीप्रकार यत्नाचारी श्रमण के निमित्त से भले ही सूक्ष्मजीवों का घात हो जाये; तब भी वह जल में रहते हुए भी जल से भिन्न कमल के समान अहिंसक ही है।
अयत्नाचार संबंधी वृत्ति (आत्मा की अरुचि) और प्रवृत्ति (असावधानीपूर्वक आचरण) अंतरंग छेद है और जीवों का वध आदि बहिरंग छेद है। ध्यान रखने की बात यह है कि बहिरंग छेद से अंतरंग छेद बलवान है।।२१८||
विगत गाथाओं में जीवों के प्राणव्यपरोपणसंबंधी छेद की बात स्पष्ट की; अब इस गाथा में परिग्रह संबंधी अंतरंग छेद की बात करते हैं, उसके निषेध का उपदेश देते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )