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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
४१९ इसप्रकार हम देखते हैं कि इन गाथाओं में उसी बात को सोदाहरण दुहरा दिया गया है, जो बात २१७वीं गाथा में कही जा चुकी है।।१५-१६ ।। अथ सर्वथान्तरंगच्छेदः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति -
अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो।।२१८।।
अयताचारः श्रमण: षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः।
चरति यतं यदि नित्यं कमलमिव जले निरुपलेपः ।।२१८।। यतस्तदविनाभाविनाअप्रयताचारत्वेन प्रसिद्ध्यदशद्धोपयोगसदभावः षटकायप्राणव्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्ध्या हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्ध्यदशुद्धोपयोगासद्भाव: परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाजलदुर्ललितं कमलमिव निरुपलेपत्वप्रसिद्धरहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वैः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्यो यैर्यैस्तदायतनमात्रभूत: परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात् ।।२१८।।
२१७वीं गाथा में कहा है कि अंतरंग छेद ही बलवान है और मूलत: वही बंध का कारण है। अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि वह अंतरंग छेद सर्वथा त्यागने योग्य है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जलकमलवत निर्लेप हैं जो रहें यत्नाचार से।
पर अयत्नाचारि तो षट्काय का हिंसक कहा ||२१८|| असावधानीपूर्वक आचरण करनेवाले श्रमण, छहों काय संबंधीजीवोंका वध करनेवाले माने गये हैं और यदि वे सदा सावधानीपूर्वक आचरण करते हैं तो जल में कमल की भांति निर्लेप कहे गये हैं।
अमृतचंद्राचार्य इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“अशुद्धोपयोग के बिनानहीं होनेवाले अप्रयत-आचार (असावधानीपूर्वक आचरण) के द्वारा ज्ञात होनेवाले अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है; क्योंकि छह काय के प्राणों के व्यपरोपण के आश्रय से होनेवाले बंध की प्रसिद्धि है। और अशुद्धोपयोग के बिना होनेवाले प्रयत-आचार (सावधानीपूर्वक आचरण) के द्वारा ज्ञात होनेवाले अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसक ही है; क्योंकि पर के आश्रय से होनेवाले बंध का अभाव होने से जल में रहते हुए कमलकीभांति निर्लेपता (अबंध) की प्रसिद्धि है। इसलिए जिन-जिन प्रकारों से अंतरंग छेद