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प्रवचनसार
प्रतिबंध भी मुनिपने के छेद का आयतन होने से हेय ही है। साथ में यह भी स्पष्ट किया जा रहा है कि छेद क्या है? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनर्विहारे वा। उपधौ वा निबद्धं नेच्छति श्रमणे विकथायाम् ।।२१५।। अप्रयता वा चर्या शयनासनस्थानचङ्क्रमणादिसु।
श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा संततेति मता ।।२१६।। श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुमात्रत्वेनादीयमाने भक्ते तथाविधशरीरवृत्त्यविरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरंगनिस्तरंगविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे, नीरंगनिस्तरंगान्तरंगद्रव्यप्रसिद्ध्यर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे, यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमात्र उपधौअन्योन्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचितेश्रमणे, शब्दपदगलोल्लाससंवलनकश्चमलितचिद्भित्तिभागायांशुद्धात्मद्रव्यविरुद्धायां कथायां चैतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यःप्रतिबन्धः।।२१५।।
(हरिगीत) आवास में उपवास में आहार विकथा उपधि में। श्रमणजन व विहार में प्रतिबंध न चाहें श्रमण ||२१५|| शयन आसन खड़े रहना गमन आदिक क्रिया में।
यदि अयत्नाचार है तो सदा हिंसा जानना ।।२१६।। मुनिराज आहार में, विहार में, आवास में, उपवास में, उपधि (परिग्रह) में, अन्य मुनिराजों में अथवा विकथा में प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) नहीं चाहते।
मुनिराजों की; शयन, आसन, खड़े रहने और गमन आदि में असावधानी पूर्वक की गई चर्या सदा सतत हिंसामानी गई है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“(१) मुनिपने के सहकारी कारणभूत शरीर के निर्वाह मात्र के लिए ग्रहण किए जानेवाले आहार में, (२) जिसमें शरीर के निर्वाह का विरोध न आवे और शुद्धात्मद्रव्य में अविकारी निस्तरंग स्थिरता होती जावे - ऐसे अनशन में, (३) नीरंग और निस्तरंग अंतरंग द्रव्य की प्रसिद्धि के लिए सेवन किया जानेवाले ऊँचे पर्वतों की गुफाओं के निवास में, (४) शरीर के निर्वाह के कारणभूत आहार के लिए जानेवाले विहार में, (५) श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं है - ऐसे देह मात्र परिग्रह में, (६) परस्पर में बोध्य