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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार करते हैं; जो इसप्रकार है -
“मुनिराज, गुरु के पास जितने शास्त्र हों, उन्हें पढ़कर; गुरु से आज्ञा लेकर समान शीलवाले
अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य इत्युपदिशति । अथ को नाम छेद इत्युपदिशति -
भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धंणेच्छदिसमणम्हि विकधम्हि ।।२१५।। अफ्यक्ता का चरिया सपणासमठाणचंकमादीसु।
समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति मदा ।।२१६।। तपस्वियों के साथ, भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से, भव्यों को आनन्द उत्पन्न करते हुए, तपश्रुत-सत्व-एकत्व-सन्तोषरूप पाँच भावनाओं कोभाते हुए; तीर्थंकर परमदेव, गणधरदेव आदि महापुरुषों के चरित्रों को स्वयं भाते हुए और दूसरों को बताते हुए विहार करते हैं।'
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि मुनिराज चाहे गुरुओं के साथ रहे या उनकी आज्ञा से अकेले विहार करें; किन्तु उन्हें अपने में तो सदा रहना ही चाहिए।
तात्पर्य यह है कि परपदार्थों से किसीप्रकार का राग या संसर्ग उनके मुनित्व को खण्डित करनेवाला है; अत: उन्हें उनसे पूरी तरह दूर ही रहना चाहिए।
मूलत: तो मुनिराज शुद्धोपयोगी ही होते हैं; किन्तु प्रमत्तविरत नामक छटवें गुणस्थान में आने पर वे शुभोपयोग में आ जाते हैं; अत: उनके जीवन में शुभराग भी देखने में आता है; किन्तु वह शुभराग २८ मूलगुणों को सावधानीपूर्वक पालने, जिनागम का गहराई से अध्ययन करने-कराने, उपदेश देने, तत्त्वचर्चा करने तक ही सीमित रहता है और रहना चाहिए; अन्यथा श्रामण्य खण्डित हुए बिना नहीं रहेगा। ___ जिनमंदिर निर्माण और पंचकल्याणक महोत्सव आदि गृहस्थोचित कार्यों में मन-वचनकाय और कृत-कारित-अनुमोदना से अपने चित्त को रंजायमान करना श्रामण्य को खंडित करनेवाले कार्य हैं।।२१३-२१४ ।।
विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि मुनिजनों को हिंसायतन होने से परद्रव्य का प्रतिबंध हेय है और स्वद्रव्य में प्रतिबंध उपादेय है।
अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि अत्यन्त निकट के सूक्ष्म परद्रव्य का