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प्रवचनसार
बंध और मोक्ष के कारणों को अत्यन्त संक्षेप में साररूप में प्रस्तुत करनेवाली इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की गई है कि मूल बात यह है कि निश्चय से रागी जीव कर्म बांधता है और रागरहित आत्मा कर्मबंधनों से मुक्त होता है।
यहाँ रागी जीव से मात्र रागभाव से परिणत जीव ही नहीं लेना, अपितु राग में धर्म मानने रूप मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम - इन तीनों से संयुक्त जीव लेना।
तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी और असंयमी जीव कर्म बाँधता है।
इसीप्रकार राग रहित का अर्थ भी सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी और संयमी जीव समझना चाहिए। निष्कर्ष के रूप में यह समझना कि रत्नत्रय से रहित जीव कर्मों से बंधता है और रत्नत्रय से परिणत जीव कर्मों से मुक्त होता है। इसप्रकार यह आत्मा जितने-जितने रूप में रत्नत्रय परिणत होता जाता है, उतने-उतने रूप में कर्मों से मुक्त होता जाता है। ____ इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि निश्चय से रागी अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और
अथ परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतमरागविशिष्टत्वं सविशेष प्रकटयति। अथ विशिष्टपरिणामविशेषमविशिष्टपरिणामं च कारणे कार्यमुपचर्य कार्यत्वेन निर्दिशति -
परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । असुहो मोहपदेसो सुहो व असुहो हवदि रागो।।१८०।। सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।।१८१।।
परिणामाद्बन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः। अशुभौ मोहप्रद्वेषौ शुभो वाशुभो भवति रागः ।।१८०।। शुभपरिणामः पुण्यमशुभ: पापमिति भणितमन्येषु ।
परिणामोऽनन्यगतो दुःखक्षयकारणं समये ।।१८१।। मिथ्याचारित्र से परिणत जीव कर्मबन्धन को प्राप्त होता है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से परिणत जीव कर्मबन्धनों से मुक्त होता है। अतः भव्यजीवों को मिथ्यात्वादि रागभाव से विरक्त
और सम्यक्त्वादिरूप वीतरागभाव में अनुरक्त होना चाहिए।।१७९|| __विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि मोह-राग-द्वेषरूप भावबंध ही वास्तविक बंध है, निश्चय बंध है; अब आगामी गाथाओं में उक्त मोह-राग-द्वेष भावों का विशेष