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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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प्राप्त करके मोह-राग-द्वेषरूप परिणमन करता है। उसके ये मोह-राग-द्वेषादि भाव ही भावबंध हैं और उनके निमित्त से द्रव्यकर्म का बंध होता है। __ अब आगामी गाथाओं में द्रव्यबंध और भावबंध का स्वरूप स्पष्ट कर यह बता रहे हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध ही है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से। जीव-पदगल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ||१७७|| आतमा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पुदगला। परविष्ट हों अर बंधे अर वे यथायोग्य रहा करें।।१७८|| सप्रदेशः स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गला: कायाः। प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्ठन्ति च यान्ति
ब ६ य = त ।। १ ७ ८ । । यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणाम:स केवलपुद्गलबन्धः। यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहराद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणाम: स केवलजीवबन्धः । यः पुन: जीवकर्मपुद्गलयो: परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयबन्धः ।।१७७।।
अयमात्मालोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः । अथ तेषु तस्य प्रदेशेषुकायवाङ्मनोवर्गणालम्बन: परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकाया: स्वयमेव परिस्पन्दवन्त: प्रविशन्त्यपि तिष्ठन्त्यपिगच्छन्त्यपिच । अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागद्वेषरूपोभावो बध्यतेऽपि च। ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ।।१७८।।
स्पर्शों से पदगल का बंध, रागादि से जीव का बंध और परस्पर अवगाह को पुद्गलजीवात्मक उभयबंध कहा गया है।
आत्मा सप्रदेशी है और उन प्रदेशों में पुद्गल समूह प्रवेश करते हैं और यथायोग्य रहते हैं और बंधते हैं। इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचंद्र इसप्रकार स्पष्ट करते
“स्निग्ध-रूक्षत्व स्पर्शविशेषों के साथ कर्मों का एकत्व परिणाम केवल पुद्गलबंध है और मोह-राग-द्वेषरूप औपाधिकभावों के साथ जीव काएकत्व परिणाम केवल जीवबंध है। जीव और कर्मपुद्गल के परस्पर परिणाम के निमित्तमात्र से जो जीव और पुद्गल का विशिष्टतर परस्पर अवगाह है, वह उभयबंध अर्थात् पुद्गलजीवात्मक बंध है।