SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार वाले द्वितीय बोल में भी यद्यपि लिंग का अर्थ इन्द्रिय और ग्रहण का अर्थ जानना ही किया गया; तथापि यह कहा गया है कि जिसे इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता; वह आत्मा अलिंगग्रहण है। इसप्रकार उक्त दोनों अर्थों में 'लिंग' शब्द का अर्थ इन्द्रियाँ, ‘ग्रहण' शब्द का अर्थ जानना' और 'अ' का अर्थ नहीं किया गया है। इसप्रकार न तो आत्मा इन्द्रियों द्वारा स्व-पर को जानने का काम करता है और न स्व-पर द्वारा इन्द्रियों के माध्यम से जानने में ही आता है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों से हमारा कोई भी संबंध नहीं है, क्योंकि न तो आत्मा उनसे जानता है और न उनसे जाना जाता है। आखिर इन्द्रियाँ देह काही तो अंग हैं और आत्मा देह से भिन्न ही है। ३. 'भगवान आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है' - इस अर्थ की प्राप्ति करानेवाले तीसरे बोल में यह कहा गया है कि इन्द्रियों से दिखाई देनेवाला ऐसा कोई लिंग (चिह्न) नहीं है कि जिससे आत्मा का अनुमान किया जा सके। जिसप्रकार धुयें को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है, अग्नि को अनुमान ज्ञान से जाना जाता है; उसप्रकार का ऐसा कोई इन्द्रियगम्य लिंग (चिन्ह) नहीं है कि जिससे अनुमान द्वारा आत्मा को जाना जा सके। प्रथम दो बोल इन्द्रियों संबंधी थे और यह तीसरा बोल इन्द्रिय और अनुमान का मिश्रित रूप है। अब आगे के तीन बोल अनुमान से संबंधित हैं। ४. यह आत्मा मात्र अनुमान से ही ज्ञात करनेयोग्य नहीं है; क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी जाना जाता है। इसप्रकार दूसरे के द्वारा मात्र अनुमान से ही जिसका ग्रहण (ज्ञान) नहीं होता, वह आत्मा अलिंगग्रहण है। ५. आत्मा मात्र लिंग अर्थात् अनुमान से पर को नहीं जानता; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा मात्र अनुमाता नहीं है, अनुमान से ही जाननेवाला नहीं है; क्योंकि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी पर को जानता है। चौथे और पाँचवें बोल में मात्र इतना ही अन्तर है कि चौथे में कहा गया है कि आत्मा मात्र अनुमान से ही नहीं जाना जाता और पाँचवें बोल में कहा है कि मात्र अनुमान से ही नहीं जानता। इसप्रकार ये दोनों बोल विशुद्ध अनुमान संबंधी नास्तिपरक-नकारात्मक (निगेटिव) बोल हैं; क्योंकि अबतक के सभी बोलों में यही बताया गया है कि आत्मा किसप्रकार नहीं जानता है और किसप्रकार नहीं जाना जाता है। इसकारण अबतक के सभी पाँच बोल नास्तिपरक-नकारात्मक (निगेटिव) बोल हैं। ६.'आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है इस अर्थ की प्राप्ति करानेवाले छठवें बोल में यह कहा गया है
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy