________________
३२८
प्रवचनसार
अशंवाले परमाणु परस्पर 'रूपी' हैं और सदृशजाति के अथवा असमान अंशवाले परमाणु परस्पर 'अरूपी' हैं ।)
इसप्रकार विशिष्ट अवगाहनशक्ति से सूक्ष्म या स्थूल तथा विशिष्ट आकार धारण करने की शक्ति से अनेक प्रकार आकार धारण करनेवाले द्विप्रदेशादिक स्कंध अपनी योग्यतानुसार स्पर्शादि चतुष्क के आविर्भाव और तिरोभाव की स्वशक्ति से पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप अपने परिणामों से ही होते हैं । इससे निश्चित होता है कि द्विअणुकादि अनंतानंत पुद्गलों का पिण्डकर्ता आत्मा नहीं है । '
""
पुद्गलपरमाणु द्रव्यों की परस्पर स्कन्धरूप बंध होने की एक सुनिश्चित प्रक्रिया है, जिसका संक्षेप में विवेचन यहाँ किया गया है। इसका विस्तृत विवेचन करणानुयोग के ग्रन्थों में प्राप्त होता है। उक्त सन्दर्भ में जिन्हें विशेष जिज्ञासा हो, वे अपनी जिज्ञासा उक्त ग्रन्थों के अध्ययन शान्त करें।
यहाँ तो संक्षिप्त कथन करने के उपरान्त इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि पुद्गल परमाणु और स्कंधों से जो शरीरादि की रचना होती है; उसमें भी आत्मा तो निमित्तरूप ही है; वह सम्पूर्ण रचना पुद्गलों की पर्यायगत योग्यता के कारण स्वसमय में स्वयमेव होती है।
इसलिए आत्मार्थी भाइयों को न तो उनमें अपनी इच्छानुसार फेरफार करने का विकल्प करना चाहिए और अपनी इच्छानुसार कार्य न होने पर किसी भी प्रकार की आकुलता भी नहीं करनी चाहिए। यदि चारित्रगत कमजोरी के कारण विकल्प आ जावे, थोड़ी-बहुत आकुलता हो जावे तो भी उसे सहजभाव से ज्ञान का ज्ञेय बना लेना चाहिए। उस पर अधिक क्रिया-प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, व्यर्थ में अधिक आकुलता करने की भी आवश्यकता नहीं है।
इन गाथाओं और उनकी टीकाओं में एक तो यह स्पष्ट किया गया है कि भगवान आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों और शारीरिक नोकर्मों का कर्ता-धर्ता नहीं है और दूसरी बात यह बताई गई है कि यह आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों के लिए कार्मण वर्गणायें कहीं से लाता भी नहीं है। लाने की आवश्यकता भी नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश में संसारी जीव ठसाठस भरे हुए हैं, कहीं कोई भी जगह खाली नहीं है; उसीप्रकार कार्मण वर्गणायें भी सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र विद्यमान हैं; अत: उन्हें कहीं से लाने की आवश्यकता ही नहीं है ।
जहाँ जीव हैं और उनके स्वयं के कारण जिससमय उनमें जिसप्रकार के रागादि भाव