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________________ ३२६ प्रवचनसार जीव के साथ उनके बंध की प्रक्रिया का क्या स्वरूप है - यही बात यहाँ समझाई जा रही है। उक्त बंध होने में कारण उनमें होनेवाली स्निग्धता और रूक्षता है। यद्यपि जीवों में स्निग्धता और रूक्षता नहीं होती; तथापि राग-द्वेष होते हैं। जीव के साथ पौगलिक कर्मों का बंध और नोकर्मों का संबंध होने का कारण जीव की रागरूप स्निग्धता और द्वेषरूप रूक्षता ही है। बंध होने की उक्त संक्षिप्त प्रक्रिया यहाँ समझाई जा रही है। विशेष जानने की बात यह है कि पुद्गलों के स्कन्धरूप परिणमन को जीव जानते तो हैं, पर उनमें कुछ करते नहीं हैं।।१६३-१६५ ।। अथ परमाणूनां पिण्डत्वस्य यथोदितहेतुत्वमवधारयति । अथात्मनः पुद्गलपिण्डकर्तृत्वाभावमवधारयति - णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ।।१६६।। दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ।।१६७।। स्निग्धत्वेन द्विगुणश्चतुर्गुणस्निग्धेन बन्धमनुभवति । रूक्षेण वा त्रिगुणितोऽणुर्बध्यते पञ्चगुणयुक्तः ।।१६६।। द्विप्रदेशादयः स्कन्धा: सूक्ष्मा वा बादरा: ससंस्थानाः। पृथिवीजलतेजोवायवः स्वकपरिणामैर्जायन्ते ।।१६७।। यथोदितहेतुकमेव परमाणूनां पिण्डत्वमवधार्य, द्विचतुर्गुणयोस्त्रिपञ्चगुणयोश्च द्वयोः स्निग्धयोः द्वयोरुक्षयोर्द्वयोः स्निग्धरुक्षयोर्वा परमाण्वोर्बन्धस्य प्रसिद्धः। जो बात विगत गाथाओं में कही गई है; उसी बात को इन गाथाओं में और विशेष विस्तार से समझाते हैं तथा यह बताते हैं कि आत्माउन पुदगलपिण्डों का कर्ता नहीं है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हो यदि चार तो। हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो।।१६६।। यदि बहुप्रदेशी कंध सूक्षम-थूल हों संस्थान में।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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