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प्रवचनसार
वाणी और मन काभीसमावेश होजाता है। इसप्रकार मन-वचन-काय के पिण्डरूप शरीर मैं नहीं हूँ; क्योंकि मैं अपुद्गलमय हूँ; इसलिए मेरा पुद्गलमय शरीर होने में विरोध है।
इसीप्रकार शरीर के कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कारयिता द्वारा और अनुमोदक द्वारा भी मैं शरीर का कर्ता नहीं हूँ; क्योंकि अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिण्डरूप परिणाम का अकर्ता मैं अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिण्डरूप पर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का मेरे कर्तारूपहोने में सर्वथा विरोध है।"
अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुदति । अथ कीदृशंतत्स्निग्ध -रूक्षत्वं परमाणोरित्यावेदयति । अथात्र कीदृशात्स्निग्धरूक्षत्वात्पिण्डत्वमित्यावेदयति -
अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो द समयसद्दो जो। णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुभवदि।।१६३।। एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं । परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि ।।१६४।। णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा। समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहीणा ।।१६५।।
अप्रदेश: परमाणुः प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो यः।
स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ।।१६३।। इस गाथा और इसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। यह भगवान आत्मा शरीर का न तो कर्ता है, न कारण है, न कारयिता है और न अनमंता ही है। पुदगल परमाणुओं से बना यह शरीर स्वयं परिणमनशील है। वह अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। इसीप्रकार भगवान आत्मा भी स्वयं परिणमनशील पदार्थ है; इसकारण वह भी अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। न तो परद्रव्य उसके कर्ता हैं और न वह शरीरादि परद्रव्यों का कर्ता है।।१६२।।
१६२वीं गाथा में आत्मा शरीरादि का कर्ता नहीं है - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में पुद्गल में परस्पर बंधरूप परिणमन का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )