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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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रहनेवाले मन-वचन-काय का स्वरूपास्तित्व पूर्णत: भिन्न-भिन्न है। वे न तो एक-दूसरे के रूप हैं, न एक-दूसरे के स्वामी हैं। इसीप्रकार वे एक-दूसरे के परस्पर कर्ता नहीं हैं, कारण नहीं हैं, कारयिता नहीं हैं और अनुमन्ता भी नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि इनमें परस्पर एकक्षेत्रावगाह संबंध के अतिरिक्त कोई भी संबंध नहीं है। अथात्मन: परद्रव्यत्वाभावं परद्रव्यकर्तृत्वाभावं च साधयति -
णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं। तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्य देहस्य ।।१६२।।
नाहं पुद्गलमयो न ते मया पुद्गलाः कृताः पिण्डम् ।
तस्माद्धि न देहोऽहं कर्ता वा तस्य देहस्य ।।१६२।। —यदेतत्प्रकरणनिर्धारितं पुदगलात्मकमन्ततवाङ्मनोद्वैतं शरीरं नाम परद्रव्यं न ताक्दहमस्मि, ममापुद्गलमयस्य पुद्गलात्मकशरीरत्वविरोधात्।
न चापि तस्य कारणद्वारेण कर्तृद्वारेण कर्तृप्रयोजकद्वारेण कत्रनुमन्तद्वारेण वा शरीरस्य कर्ताहमस्मि, ममानेकपरमाणुद्रव्यैकपिण्डपर्यायपरिणामस्याकर्तुरनेकपरमाणुद्रव्यैकपिण्डपर्यायपरिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात् ।।१६२।।
इसलिए ज्ञानी धर्मात्मा जीव इनके प्रति पूर्णत: मध्यस्थ रहते हैं, शरीरादि में कुछ करने के बोझ से पूर्णत: मुक्त रहते हैं। यदि कमजोरी के कारण तत्संबंधी कोई विकल्प खड़ा हो जाता है तो उसे भी जान लेते हैं, सहजभाव से ज्ञान का ज्ञेय बना लेते हैं; उसके कारण आकुल-व्याकुल नहीं होते॥१६०-१६१||
विगत गाथा में मन-वचन-काय का परद्रव्यत्व बताकर अब इस गाथा में यह बताते हैं कि यह आत्मा न तो परद्रव्य है और न परद्रव्यों का कर्ता ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें।
मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं ॥१६॥ मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और वे पुद्गल मेरे द्वारा पिण्डरूप नहीं किये गये हैं; इसलिए मैं देह नहीं हूँ तथा उस देह का कर्ता भी नहीं हूँ।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसका प्रकरण चल रहा है- ऐसायह शरीर पुदगलद्रव्यात्मक परद्रव्य है; इसके भीतर