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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार
२८७ परमाणु से व्याप्त होना है और यहाँइस गाथा में 'जिसप्रकार आकाश के प्रदेश हैं; उसीप्रकार शेष द्रव्यों के भी प्रदेश हैं' - इसप्रकार प्रदेश के लक्षण की एक प्रकारता कही जा रही है।
जिसप्रकार एक परमाणु से व्याप्य अंश के द्वारा गिने जाने पर आकाश अनन्त प्रदेशी है; धमैकजीवानामसंख्येयांशत्वात् प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशत्वम्।
यथा चावस्थितप्रमाणयोर्धर्माधर्मयोस्तथा संवर्तविस्ताराभ्यामनस्थितप्रमाणस्यापि शुष्कार्द्रत्वाभ्यांचर्मण इव जीवस्य स्वांशाल्पबहत्वाभावादसंख्येयप्रदेशत्वमेव।
अमूर्तसंवर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमारशरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव।
पुद्गलस्य तु द्रव्येणैकप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि द्विप्रदेशाधुद्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोद्भवत्वमस्ति । ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि संभवात् व्यादिसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वमपिन्याय्यं पुद्गलस्य ।।१३७।। ___ अप्रदेश एव समयोद्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात् । न च तस्य पुद्गलस्येव पर्यायेणाप्यनेकप्रदेशत्व, यतस्तस्य निरन्तरं प्रस्तारविस्तृतप्रदेशमात्रासंख्येयद्रव्यत्वेऽपि परस्परसंपर्कासंभवादेकैकमाकाशप्रदेशमभिव्याप्य तस्थुषः प्रदेशमात्रस्य परमाणोस्तदभिव्याप्तमेकमाकाशप्रदेशं मन्दगत्याव्यतिपतत एव वृत्तिः ।।१३८।। उसीप्रकार एक परमाणु से व्याप्य अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वे सभी असंख्यातप्रदेशी हैं।
जिसप्रकार सुनिश्चित प्रमाणवाले धर्म तथा अधर्मद्रव्य असंख्यातप्रदेशी हैं; उसीप्रकार संकोचविस्तार के कारण अनिश्चित प्रमाणवाले जीव के भी, सूखे-गीले चमड़े के समान निज अंशों का अल्प-बहुत्व नहीं होता; इसकारण असंख्यातप्रदेशीपनाही है।
अमूर्त पदार्थ के संकोचविस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि यह तो सभी स्वानुभव से जानते ही हैं कि जीव स्थूल और कृशशरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है। ___पुद्गल तो द्रव्य की अपेक्षा एकप्रदेशमय होने से पहले कहे अनुसार अप्रदेशी ही है; तथापि दो (अनेक) प्रदेशादि के उद्भव के हेतुभूत उसप्रकार के स्निग्ध-रूक्ष गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है; इसलिए पर्याय की अपेक्षासे अनेकप्रदेशीपना भी संभव होने से पुद्गल को द्विप्रदेशीपने से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंतप्रदेशीपनाभीन्याययुक्त है, युक्तिसंगत है।।
प्रदेशमात्र होने से कालद्रव्य अप्रदेशी ही है और उसे पुद्गल के समान पर्याय से भी अनेक प्रदेशीपना नहीं है; क्योंकि परस्पर अन्तर के बिना विस्ताररूप विस्तृत प्रदेशमात्र