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प्रवचनसार
२८६ आगे बढ़ाते हुए इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि वह सप्रदेशीपना और अप्रदेशीपना किसप्रकार संभव है और कालाणु अप्रदेशी है - यह सुनिश्चित करते हैं। ___ अथ प्रदेशवत्त्वाप्रदेशवत्त्वसंभवप्रकारमासूत्रयति । अथ कालाणोरप्रदेशत्वमेवेति नियमयति
जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं । अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो।।१३७।। समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स । वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ।।१३८।।
यथा ते नभ:प्रदेशास्तथा प्रदेशा भवन्ति शेषाणाम् । अप्रदेशः परमाणुस्तेन प्रदेशोद्भवो भणितः ।।१३७।। समयस्त्वप्रदेशः प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य ।
व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाशद्रव्यस्य ।।१३८।। सूत्रयिष्यते हि स्वयमाकाशस्य प्रदेशलक्षणमेकाणुव्याप्यत्वमिति । इह तु यथाकाशस्य प्रदेशास्तथा शेषद्रव्याणामिति प्रदेशलक्षणप्रकारकत्वमासूत्र्यते। ततो यथैकाणुव्याप्यनांशेन गण्यमानस्याकाशस्यानन्तांशत्वादनन्तप्रदेशत्वं तथैकाणुव्याप्येनांशेन गण्यमानानां धर्मागाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जिसतरह परमाणु से है नाप गगन प्रदेश का। बस उसतरह ही शेष का परमाणु रहित प्रदेश से।।१३७|| पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में।
रे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह।।१३८|| जिसप्रकार आकाश के प्रदेश हैं; उसीप्रकार शेष द्रव्यों के भी प्रदेश हैं। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार आकाश के प्रदेश परमाणुरूपमापसेनापे जाते हैं; उसीप्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश भीइसीप्रकार नापे जाते हैं। परमाणु अप्रदेशी है और उसके द्वारा प्रदेशोद्भव कहा गया है। काल तो अप्रदेशी है और प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु आकाशद्रव्य के एक प्रदेश कोमंदगति से उल्लघंन कर रहा हो, तब वह काल वर्तता है अर्थात् निमित्तभूततया परिणमित होता है। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं“आचार्य कुन्दकुन्द १४०वींगाथा में स्वयं कहेंगे कि आकाशकेएक प्रदेशका लक्षण एक