________________
२७८
""
इसलिए शब्द पुद्गल की पर्याय ही होना चाहिए ।' अथामूर्तानां शेषद्रव्याणां गुणान् गृणाति -
प्रवचनसार
आगासस्सवगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं । धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ।। १३३ ।। कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो । या संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं । ।१३४ । ।
मूल गाथा में तो मात्र इतना ही कहा है कि चाहे इन्द्रियों के माध्यम से पकड़ में आवे या नहीं आवे, सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल सभी पुद्गलों में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण - ये चार गुण अवश्य पाये जाते हैं। ये गुण पुद्गल की पहिचान के चिह्न हैं, स्वरूप हैं, लक्षण हैं। यद्यपि शब्द कर्णेन्द्रिय के विषय हैं; तथापि शब्द पुद्गल का गुण नहीं है; अपितु भाषावर्गणारूप अनेक पुद्गलों की मिली हुई समानजातीय द्रव्यपर्याय है।
कतिपय भारतीय दर्शनों में शब्द को आकाश का गुण माना गया है। अतः मतार्थ दृष्टि से टीकाकारों ने सयुक्ति सिद्ध किया है कि शब्द किसी अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है; क्योंकि शब्द कर्ण इन्द्रिय का विषय बनता है। यदि शब्द आकाश का गुण होता तो गुणी आकाश को भी कर्ण इन्द्रिय का विषय बनना चाहिए; क्योंकि गुण और गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं।
साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि शब्द अमूर्त आकाशादि द्रव्यों का गुण तो है ही नहीं; साथ ही वह मूर्त पुद्गल का भी गुण नहीं है, पर्याय है; क्योंकि शब्द अनित्य होते हैं । गुण अनित्य नहीं होते, नित्य ही होते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि शब्द अकेले कर्ण इन्द्रिय का विषय क्यों है, पाँचों इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं; उनसे कहते हैं कि स्पर्शादि गुण भी तो एक-एक इन्द्रियों के ही विषय हैं, सभी इन्द्रियों के नहीं; तो फिर शब्द ही क्यों सभी इन्द्रियों का विषय बनें?
टीका में उक्त बातों को अनेक युक्तियों और उदाहरणों से सिद्ध किया गया है; जिनमें चन्द्रकान्त मणि, अरणि एवं जौ के उदाहरण मुख्य हैं।
स्पर्शादि गुण मूर्तद्रव्य पुद्गल के गुण हैं - यह बात तो निर्विवाद है; अतः इस पर तो विशेष कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु शब्दों के बारे में विवाद है, अनेक मत हैं; इसकारण उनकी चर्चा विस्तार से की गई है ॥१३२॥
विगत गाथा में मूर्तद्रव्य पुद्गल के गुणों की चर्चा करने के उपरान्त अब शेष अमूर्त द्रव्यों