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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार अथ लोकालोकत्वविशेष निश्चिनोति -
पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्ढो। वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु॥१२८।।
पुद्गलजीवनिबद्धो धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्यः।
वर्तते आकाशे यो लोकः स सर्वकाले तु ।।१२८।। अस्ति हि द्रव्यस्य लोकालोकत्वेन विशेषविशिष्टत्वं स्वलक्षणसभावात् । स्वलक्षणं हि लोकस्य षड्द्रव्यसमवायात्मकत्वं, अलोकस्य पुन: केवलाकाशात्मकत्वम्।
तत्र सर्वद्रव्यव्यापिनि परममहत्याकाशे यत्र यावति जीवपदगलौ गतिस्थितिधर्माणौ गतिस्थिती आस्कन्दतस्तद्गतिस्थितिनिबन्धभूतौ च धर्माऽधर्मावभिव्याप्यावस्थितौ,
यह एक अकेला प्रयोग नहीं है। इसी प्रवचनसार में आगे चलकर छह द्रव्यों के संदर्भ में इसीप्रकार के अनेक प्रयोग किये गये हैं। जैसे - द्रव्य दो प्रकार के हैं - मूर्तिक और अमूर्तिक । एकमात्र पुद्गल मूर्तिक है, शेष सभी द्रव्यों का मिलकर एक नाम अमूर्तिक है ।।१२७।। ___विगत १२७वीं गाथा में जीवद्रव्य की मुख्यता से द्रव्यों के जीव-अजीव भेदों का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब उनका विभाजन आकाशद्रव्य की मुख्यता से लोक और अलोक के रूप में करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) आकाश में जो भाग पुदगल जीव धर्म अधर्म से।
अर काल से समृद्ध वह सब लोक शेष अलोक है|१२८|| आकाश में जो भाग जीव और पुद्गल से संयुक्त है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालद्रव्य से समद्ध है; वह सब सदाहीलोक है। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“द्रव्यों का लोक और अलोक के रूप में वर्गीकरण अपनी विशेष विशेषता रखता है; क्योंकि लोक और अलोक के अपने विशेष लक्षण हैं। लोक का लक्षण षड्द्रव्यसमुदायात्मकता है और अलोक का लक्षण केवल आकाशात्मकता है।
सर्व द्रव्यों में व्याप्त होनेवाले महान आकाश में जितने आकाश में गति-स्थितिवाले जीव और पुद्गल गति-स्थिति को प्राप्त होते हैं; उनकी गति-स्थिति में निमित्तभूत धर्म और अधर्म द्रव्य व्याप्त होकर रहते हैं और सभी द्रव्यों के परिणमन में निमित्तभूत कालाणुद्रव्य सदा रहते हैं;