________________
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
२६५
इस आतमा को निजातम में लगा दिया ||७|| जिसने अन्यद्रव्य से भिन्नता के द्वारा आत्मा को परद्रव्यों से अलग दिखाया और समस्त विशेषों को सामान्य में लीन किया; ऐसे इस उदण्ड मोहलक्ष्मी को लूट लेनेवाले शुद्धनय ने उत्कट विवेक के द्वारा आत्मतत्त्व को पर से भिन्न अकेला दिखाया है।
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि एकमात्र शुद्धनय ही ऐसा नय है, जो आत्मा को परद्रव्यों से पृथक् और सम्पूर्ण विशेषों को आत्मा में अन्तर्लीन दिखाकर आत्मा में ही स्थापित करता है और मोहलक्ष्मी को लूट लेता है अर्थात् मोह का नाश कर देता है।
न को सत्यार्थ जानकर शुद्धनय के विषयभूत अपने शुद्धात्मा में समा जाना ही श्रेयस्कर है। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है - __इति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वप्रदीपिकायां श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापने द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनं समाप्तम् ।
(मनहरण कवित्त ) इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर।
करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ।। इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर।
कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया ।। ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल |
सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया | अपनी ही महिमामय परकाशमान |
रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ||८|| परपरिणति के उच्छेद और कर्ता, कर्म आदिभेदोंकीभ्रान्ति के नाश से जिसने शुद्धात्मतत्त्व उपलब्ध किया है; ऐसा वह आत्मा चैतन्यमात्ररूप निर्मल तेज में लीन होता हुआ अपनी सहज महिमा के प्रकाशमानरूप से सदा मुक्त हीरहेगा।
इसप्रकार इस छन्द में यह बताया गया है कि जिस आत्मा ने परपरिणति के उच्छेद और कर्ता-कर्म संबंधी भ्रान्ति के नाश से शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है; वह आत्मा स्वयं में ही समा जायेगा और दु:खों से सदा ही मुक्त रहेगा, प्रकाशमान रहेगा।
इसप्रकार यह द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार समाप्त होता है।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्दभारिल्ल कृत ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अंतर्गत द्रव्यसामान्य प्रज्ञापन अधिकार समाप्त होता है।