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प्रवचनसार
है- ऐसा निश्चय करके ज्ञानी आत्मा पर से अन्यत्व और अपने में एकत्व स्थापित करता है, एकत्व और अन्यत्व भावना भाता है। __द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार की इस गाथा में प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता की घोषणा की गई है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि आत्मा भी एक स्वतंत्र द्रव्य है; इसकारण वह भी अपने विकारी-अविकारी परिणमन में पूर्णतः स्वतंत्र है; विकारी परिणमन में परद्रव्यरूप कर्मोदय का सद्भाव और निर्मल परिणमन में परद्रव्यरूप कर्मोदय के उदय का अभाव तो निमित्तमात्र है। कर्म उक्त परिणमन का कर्ता-भोक्ता नहीं; उक्त परिणमन का कर्ता-भोक्ता तो भगवान आत्मा ही है।।१२६।। इसके बाद इस द्रव्यसामान्य प्रज्ञापन अधिकार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में उपसंहार संबंधी
(वसंततिलका छन्द) द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा सामान्यमजितसमस्तविशेषजातः। इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मीलुण्टाक उत्कटविवेकविविक्ततत्त्वः ।।७।।
(मंदाक्रांता छन्द) इत्युच्छेदात्परपरिणते: कर्तृकर्मादिभेदभ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मच्छितश्चेतनोऽयं ।
स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव ।।८।। ३ कलश हैं, जिनमें अन्तिम अनुष्टुप छन्द तो मात्र इतना ही कहता है कि इसप्रकार द्रव्यसामान्य के ज्ञान से मन को गंभीर करके अब द्रव्यविशेष के परिज्ञान का आरंभ करते हैं। उक्त छन्दों में से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(मनहरण कवित्त) जिसने बताई भिन्नता भिन्न द्रव्यनि से |
__ और आतमा एक ओर को हटा दिया || जिसने विशेष किये लीन सामान्य में ।
और मोहलक्ष्मी को लूट कर भगा दिया ।। ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही।
निज आतमा का स्वभाव समझा दिया ।। और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर।